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तं परिणाय मेहावी इयाणि णो, जमहं पुत्वमकासी पमाएणं । ___ मेधावी साधक को आत्मपरिज्ञान से यह दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि मैंने पूर्व जीवन में प्रमाद के कारण जो कुछ भूल की है, वह अब कदापि नहीं करूँगा।
-आचाराङ्ग ( १/१/४/३६) अंतर च खलु इमं सपेहाए, धीरे मुहुत्तंमवि णो पमायए ।
धैर्यवान साधक को, उन्नत जीवन-प्रवाह में, मनुष्य जीवन को मध्य का एक उत्तम अवसर समझकर मुहूत्त भर के लिए भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
-आचाराङ्ग ( १/२/१/६६) अलं कुसलस्स पमाएणं । बुद्धिमान साधक को अपनी साधना में प्रमाद से दूर रहना चाहिए ।
-आचाराङ्ग ( १/२/४/८५) सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वइ, जंसिमे पाणा पव्वहिया।
मानव स्वकीय भूलों से ही प्रमादवश पृथक-पृथक् व्रतों का भेदन करता है और फिर विभिन्न दुःखों से संतप्त एवं पीड़ित होते हुए जगत की विचित्र स्थितियों में फंस जाता है ।
-आचाराङ्ग ( १/२/६/६८) सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अपमत्तस्स नत्थि भयं । प्रमत्त को सब तरह से भय रहता है और अप्रमत्त को सब तरह से कोई भय नहीं है।
-आचाराङ्ग ( १/३/४/१२४ )
उठ्ठिए नो पमायए। । कर्त्तव्य-पथ पर चलने को उद्यत हुए व्यक्ति को फिर प्रमाद नहीं करना चाहिये।
--आचाराङ्ग ( १/५/२) अप्पमत्तस्स णस्थि भयं, गच्छतो चिट्ठतो भुंजमाणस्स वा। अप्रमत्त को चलते, खड़े होते, खाते कहीं भी कोई भय नहीं है ।
-आचाराङ्ग-चूर्णि ( १/३/४) २४ ]
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