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रूप में आसक्त मनुष्य को कहीं भी एवं कभी भी किंचित् मात्र सुख नहीं मिल सकता। खेद है कि जिसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य महान् कष्ट उठाता है, उसके उपभोग से कुछ सुख न पाकर क्लेश-दुःख या अतृप्ति दुःख ही प्राप्त करता है।
-उत्तराध्ययन (३२/३२ ) रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोपरंपरेण । न लिप्पए भवमज्झे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥
रूप से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर अनेक दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता।
--उत्तराध्ययन (३२/३४ ) णहि णिरवेक्खो बागो, णहवदिभुक्खुस्स आसयविसुद्धी । अविसुद्धस्स हि चित्ते, कहंणु कम्मक्खओ होदि ॥
जब तक निरपेक्ष रूप से त्याग नहीं किया जाता है, तब तक साधक के मन की विशुद्धि नहीं होती, और जब तक मन की शुद्धि नहीं होती है, तब तक कर्मक्षय किस प्रकार सम्भव हो सकता है ?
-प्रवचनसार ( ३/२०) तण कठेहि व अग्गी, लवणजलो वा नई सहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं काम भोगेउं ॥
जिस तरह तिनका, काष्ठ, अग्नि और हजारों नदियों से भी विराट सिन्धु तृप्त नहीं होता, उसी तरह राग में आसक्त प्राणी काम-भोगों में तृप्ति नहीं पाता है।
___- आतुर प्रत्याख्यान (५०) गुरु से कामा, तओ से मारस्स अंतो, जओ से मारस्स अंतो, तओ से दूरे,
नेव से अंतो, नेव से दूरे। जिसकी कामनाएँ अति तीव्र होती हैं, वह मृत्यु से ग्रस्त होता है और जो
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