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धन और पत्नी का त्याग कर तूं अनगार-वृत्ति के लिए घर से निकल चुका अब इन वमन की हुई, त्यक्त वस्तुओं का पान कदापि न कर ।
- उत्तराध्ययन ( १० / २६ )
अबउज्झियं चेव
विउलं मा तं बिइयं
मित्र, बान्धव और विपुल धन राशि को नहीं करनी चाहिये ।
मित्तबन्धवं.
धणोहसंचयं, गवेसए ।
छोड़कर फिर से उनकी गवेषणा
- उत्तराध्ययन ( १० / ३० )
इह लोए निष्पिवासस्स, नत्थि किंचि वि दुक्करं । जिस व्यक्ति की ऐहिक सुखों की प्यास बुझ चुकी है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है ।
- उत्तराध्ययन ( १६/४४ )
कामाणुगिद्धिप्पभवं खु सव्वस्स लोगस्स
दुक्खं, सदेवगस्स,
जं कांइयं माणसियं व किंचि |
सब जीवों के, और क्या देवताओं के भी जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख है, वह काम भोगों की सतत् आसक्ति एवं अभिलाषा से उत्पन्न होता है ।
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- उत्तराध्ययन ( ३२ / १६ ) रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं रागाउरे से जह वा पयंगे, आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥ जो मनोज्ञ रूपों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे प्रकाश-लोलुप पतंगा रूप में आसक्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है ।
--- उत्तराध्ययन ( ३२/२४ )
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रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? तत्थोवभोगे वि किलिसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥
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