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बुद्धिमान पुरुष व्यवहार-भाषा बोले, वह भी पाप-रहित अकर्कश कोमल हो, उसकी समीक्षा करके एवं सन्देह रहित बोले ।
-दशवैकालिक (७/३) तहेव काणं काणे त्ति, पंउंगं पंउंगे त्ति वा ।
वाहियं वा वि रोगिति, तेणं चोरे त्ति नो वए । काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है, तथापि ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि इससे इन व्यक्तियों को दुःख पहुँचता है ।
–दशवैकालिक (७/१२) तहेव सावज्जऽणुमोयणी गिरा,
ओहारिणी जा य परोवघायणी। से कोह लोह भय हस माणवो,
न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ॥ मनुष्य पापमय, निश्चयात्मक तथा दूसरों को दुःखदायी वाणी न बोले । क्रोध, लोभ, भय और हास्य में भी पापमय वाणी न बोले। हँसी-मजाक में भी पाप-वचन न बोले ।
-दशवकालिक (७/५४ ) मियं अदुठे अणुवीए भासए ।
सयाण मज्झे लहई पसंसणं ॥ परिमिति और निर्दोष वक्तव्य करनेवाला, सत्पुरुषों में प्रशंसा प्राप्त करता है।
-दशवैकालिक (७/५५ ) वइज्ज बुद्ध हियमाणुलोमियं । ऐसी वाणी का प्रयोग करें, जो हितकारी और सर्वप्रिय हो ।
-दशवैकालिक (७/५६) दि8 मियं असंदिद्ध, पडिपुन्नं विअजियं ।
अयंपि रमणुग्विग्गं भासं निसिर अत्तवं ॥ आत्मवान साधक दृष्य अर्थात् अनुभूत, परिमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, च्यक्त, परिचित, अवाचाल और अभय भाषा बोले ।।
- दशवैकालिक (८/४८) २३८ ]
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