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वाग्विवेक
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं वयावए ।
अपने लिए अथवा दूसरों के लिए क्रोध या भय से किसी भी प्रसंग पर दूसरों को पीड़ा पहुँचानेवाला असत्य वचन न तो स्वयं बोले और न दूसरों से ही बुलवाए।
—दशवैकालिक (६/११) मुसावाओ य लोगम्मि, सव्वसाहहिं गरिहिओ।
अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए । संसार में मृषावाद सभी सत्पुरुषों द्वारा निन्दित, गर्हित माना गया है । असत्य भाषण सभी प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है। इसलिए मृषावाद सर्वथा छोड़ देना चाहिये।
–दशवैकालिक ( ६/१२) वितहं वि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो।
तम्हा सो पुट्ठो पावेणं, किं पुण जो मुसं भए ।। जो मानव मूलतः असत्य, किन्तु दिखावे रूप में सत्य प्रतीत होनेवाली भाषा बोलता है, वह भी जब पाप से अछुता नहीं रहता तब जो असत्य ही बोलता है, उसके पाप का तो कहना ही क्या ? वह तो पापों की ही गठरी का भार ढोता है।
-दशवैकालिक (७/५) अईअंमि अ कालंमि, पच्चुप्पण्णमणागए।
जमठें तु न जाणिज्जा, एवमेअं ति णो वए । भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों काल में जिस बात को स्वयं अच्छी तरह न जाने, उसके सन्दर्भ में 'यह ऐसा ही है'-ऐसी निर्णायक भाषा न बोलें।
-दशवैकालिक (७/८ ) असच्चमोसं सच्चं च अणवज्जमकक्कसं। समप्पेहमसंदिद्ध गिरं भासिज्ज पण्णवं ।।
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