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संसारदेह-भोगेसु विरत्तभावो य वैराग्गं । संसार, देह, भोगों से विरक्त होना वैराग्य है ।
-द्रव्य-संग्रह ( ३५) विराग स्वेहि गच्छिज्जा, महया खुड्डए हि य । महान हों या क्षुद्र हों, अच्छे हों या बुरे हों, सभी विषयों से साधक को विरक्त रहना चाहिये
--आचारांग ( १/३/३) जेण विरागो जायइ, तं सव्वायरेण करणिज्ज ।
मुञ्चइ हु ससंवेगी, अणंतवो होइ असंवेगी। जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिये। विरक्त व्यक्ति संसार के बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का संसार अनन्त होता जाता है।
-मरण-समाधि ( २६६)
विवेक हरइ अणू वि पर-गुणो गुरुअम्मि वि णिअ-गुणे ण संतोसो। सीलस्स विवेअस्स अ सारमिणं एत्तिरं चेअ।
दूसरे का छोटा गुण भी महान व्यक्ति को प्रसन्न करता है, किन्तु उसे अपने बड़े गुण में भी संतोष नहीं होता है। शील और विवेक का यह इतना ही सार है।
-गउडवहो (७६)
वीतराग अणुक्कसे अप्पलीणे, मुज्झेण मुणि जावए । अहंकार-रहित एवं अनासक्त-भाव से मुनि को राग-द्वेष के प्रसंगों में ठीक बीच से तटस्थ यात्रा करनी चाहिये ।।
-सूत्रकृतांङ्ग ( १/१/४/२)
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