________________
जो ण पमाणणयेहि, णिक्खेवेणं णिरिक्खदे अत्थं । तस्साजुत्तं जुत्तं, जुत्तमजुत्तं च पडिहादि ॥
जो प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा अर्थ का बोध नहीं कराता, उसे अयुक्त युक्त और युक्त आयुक्त प्रतीत होता है ।
विपर्यास
जो जेण पगारेणं, भावो णियओ तमन्नहा जो तु । मन्नति करेति वदति व, विप्परियासो भवे एसो ॥
-तिलोयपणति ( १/८२ )
जो भाव जिस प्रकार से नियत है, उसे अन्य रूप से मानना, कहना या करना विपर्यास या विपरीत बुद्धि है ।
- उत्तराध्ययन ( ३७/१२)
जर देव मह पसन्नो मा जम्मं देहि माणुसे लोए । अह जम्मं मा पेम्मं, अह पेम्मं मा विओयं च ||
यदि देव मुझ पर प्रसन्न है, तो मनुष्य-लोक में जन्म न दें, यदि जन्म दें, तो प्रेम न हो और यदि प्रेम हो, तो वियोग न हो ।
- वज्जालग्ग (३६ / ३ )
२१६ ]
वियोग
विरक्त
भावे विरतो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोपरंपरेण । ण लिपई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणोपलासं ॥
Jain Education International 2010_03
जो व्यक्ति भाव से विरक्त है और दुःखों को परम्परा के द्वारा जिसके चित्त में मोह व शोक उत्पन्न नहीं होता है, वह इस संसार में रहते हुए भी, उसी प्रकार अलिप्त रहता है, जिस प्रकार जल के मध्य कमलिनी का पत्ता |
-- उत्तराध्ययन ( ३२ / ६६ )
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org