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________________ सूर्य कहाँ निकलता है और कमल कहाँ खिलते हैं। संसार में सुजनों का प्रेम दूर रहने पर भी विचलित नहीं होता। -वज्जालग्ग (७/८) जो धम्मिएसु भत्तो, अणुचरणं कुणदि परमसद्धाए। पिय वयणं जंपतो, वच्छलं तस्स भव्वस्स ॥ जो व्यक्ति प्रिय वाणी बोलता हुआ विशेष श्रद्धा से धर्मप्रेमियों में प्रमोदपूर्ण भक्ति रखता है और उनके अनुसार आचरण करता है, उस भव्य व्यक्ति के वात्सल्य-गुण कहा गया है। -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( ४२१) पीती सुण्णो पिसुणो। जो प्रीति से शून्य है, वह "पिशुन' है । -निशीथ-भाष्य (६२१२) पढमारंभमणहरं घणलग्गं माण रायरमणिज्जं॥ पेम्मं सुरिंदयावं व चंचलं झत्ति वोलेइ ॥ जिसका प्रथम आरम्भ मनोहर होता है, जिसमें घना लगाव हो जाता है तथा जो मान और अनुराग से रमणीय लगता है, वह प्रेम उस इन्द्रधनुष के समान चंचल है और शीघ्र नष्ट हो जाता है, जिसका प्रथमारंभ मनोहर होता है, जो सीमाबद्ध रंगों से रमणीय होता है और मेघों से संलग्न रहता है । -वजालग्ग (३६/१) अन्नं तं सयदलियं पिमिलइ रसगोलिय व जं पेम्म । वह प्रेम और ही है, जो पारे की गोली के समान सौ टुकड़े हो जाने पर भी जुड़ जाता है। -वज्जालग (३६/४) जा न चलइ ता अमयं चलियं पेम्म विसं विसेसेइ । प्रेम जब तक स्थिर रहता है, तब तक अमृत है। जब वह स्थिर नहीं रह जाता, तब विष से भी अधिक भयानक बन जाता है। -वज्जालग (३६/७) १७८ ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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