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जह बालो जंपन्तो, कजमकज्जं च उज्जुयं भणइ । तं तह आलोणइजा, मायामय विप्पमुक्को वि॥ .
जिस प्रकार बालक अपने कार्य-अकार्य को सरलतापूर्वक माता के समक्ष व्यक्त कर देता है, उसी प्रकार व्यक्ति को भी समस्त दोषों की आलोचना माया-मद/छल-छद्म त्यागकर करनी चाहिए ।
-महाप्रत्याख्यान-प्रकीर्णक ( २२) जो चिंतइ अप्पाणंणाण-सरूवं पुणो पुणो वाणी । विकह-विरत्त चित्तो पायच्छित्तं वरं तस्स ॥
जो ज्ञानी ज्ञान-स्वरूप आत्मा का बारम्बार चिन्तन करता है और विकथा आदि से जिसका मन विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट प्रायश्चित होता है।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा (४४५)
प्रेम
पडिवन्न जेण समं पुव्वणिओएण होइ जीवस्स ।
दूरडिओ न दूरे जह चंदो कुमुयसंडाणं ॥ पूर्वकृत कर्म की प्रेरणा से जो जीव जिस किसी के साथ प्रीति का सम्बन्ध जोड़ लेता है, वह दूर रहने पर भी दूर नहीं रहता, जैसे चन्द्रमा कुमुदवन से ।
-वजालग्ग (७/४) एमेव कह वि कस्स वि केण वि दिह्रण होइ परिओसो। कमलायराण रइणा किं कज्जं जे वियसंति॥
किसी को देखकर भी किसी को अकारण ही सुख प्राप्त हो जाता है। सूर्य से कमलों का क्या प्रयोजन है जो उसे देखकर विकसित हो जाते हैं।
- वजालग्ग (७/७) कत्तो उग्गमइ रई कत्तो वियसंति पंकयवणाई। सुयणाण जए नेहो न चलइ दूरट्ठियाणं पि॥
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