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जे एणं पडिसेहति वित्तिच्छेयं करंति ते । जो अनुकम्पादान का प्रतिषेध करता है, वह असहायों की वृत्ति-आजीविका का छेदन करता है। यानी गरीबों के पेट पर लात मारता है ।
-सूत्रकृताङ्ग ( ) मरण-भयभीरुआणं अभयं जो देदि सव्वजीवाणं । तं दाणाणवि तं दाणं पुण जोगेसु मूलजोगंपि ।
मृत्यु भय से भय भीत जीवों को जो अभयदान देता है, वही दान सब दानों में उत्तम है।
-मूलाचार (६३६) साहूणं कप्पणिज्ज, जं न वि दिण्णं कहिं पि किचि तहिं । धीरा जहुत्तकारी, सुसावया तं न भुजंति ।।
जिस घर में साधुओं को उनके अनुकूल किंचित भी दान नहीं दिया जाता, उस घर में शास्त्रोक्त आचरण करनेवाले धीर तथा त्यागी सद्गृहस्थ भोजन नहीं करते।
-उपदेश-माला ( २३६) जो मुणिभुत्तविसेसं, भुंजइ सो भुंजए जिणुवदिट्ठ। संसारसारसोक्खं, कमसो णिव्वाणवर सोक्खं ॥
जो गृहस्थ मुनि को भोजन (दान) के पश्चात् बचा हुआ भोजन करता है, वास्तव में उसी का भोजन करना सार्थक है। वह जिनोपदिष्ट संसार का सारभूत सुख तथा क्रमशः मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है ।
-रयणसार ( २१) दुल्लहाओ मुहादायी, मुहाजीवी वि दुल्लहा । मुहादायी मुहाजीवी, दोवि गच्छंति सुगई।
इस विश्व में निःस्वार्थ दाता और निःस्वार्थ जीवन जीनेवाला पात्र दानों ही दुर्लभ हैं। इस तरह के मुधादायी और मुधाजीवी दोनों ही सुगति में जाते हैं।
-दशवैकालिक ( ५/१)
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