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जो मनुष्य उत्तम खेत में अच्छे बीज को बोता है तो उसका फल मनवांछित पूर्ण रूप से प्राप्त होता है। इसी प्रकार उत्तम पात्र में दान देने से सर्वोत्कृष्ट सुख की प्राप्ति होती है ।
- रयणसार (१७) अइवड्ढबाल-मूर्यध-बहिर-देसंतरीय-रोडाणं।
जह जोग्गं दायव्वं करुणादानं । अतिवृद्ध, बालक, गूंगा, अन्धा, बहिरा, परदेशी एवं रोगी-दरिद्र प्राणियों को यथायोग्य करुणा-दान देना चाहिए।
-वसुनन्दि-श्रावकाचार ( २३५) जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीर जीवाणं।
तं जाण अभयदाणं सिहामणि सव्वदाणाणं ॥ मरण से भयभीत जीवों का जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सब दानों का शिरोमणि रूप अभयदान है।
_ -वसुनन्दि श्रावकाचार ( २३८) आहारोसह-सत्थाभय-भेओ जं चउन्विहं दाणं। तं वुच्चा दायव्वं, णिहिमुवासयज्झयणे ॥
आहार, औषध, शास्त्र और अभय के रूप में दान चार प्रकार का कहा गया है। उपासकाध्ययन (श्रावकाचार ) में उसे देने योग्य कहा गया है।
-वसुनन्दि-श्रावकाचार ( २३३) जह उसरम्मि खित्ते पइण्णबीयं ण कि पि रुहेइ ।
फला वजियं वियाणइ अपत्तदिण्णं तहा दाणं॥ जिस प्रकार ऊसर खेत में बोया गया बीज कुछ भी नहीं उगता है, उसी प्रकार अपात्र में दिया गया दान भी फल-रहित-सा है।
-वसुनन्दि-श्रावकाचार ( २४२) दाणाणं सेट्ठं अभयप्पमाणं । दानों में श्रेष्ठ अभयदान है।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/६/२३) १३६ ]
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