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सभी तरह से शरीर का मोह त्याग दीजिए, परिणामतः परीषहों के आने पर विचार कीजिये कि मेरे शरीर में परीषह है या नहीं?
आचारांग ( १/८/८/२१) अज्जेवाहं न लब्भामो, अविलाभो सुए सिया।
जो एवं पडिसंचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए । 'आज नहीं मिला है तो क्या है, कल मिल जायेगा'-जो यह विचार कर लेता है, वह कभी अलाभ के कारण पीड़ित नहीं होता।
-उत्तराध्ययन ( २/३१) दुक्खेण पुढे धुयमायएज्जा। दुःख आ जाने पर भी मन पर संयम ही रखना चाहिए ।
-सूत्रकृतांग ( १/७/२६) तितिक्खं परमं नश्चा। तितिक्षा को परम धर्म समझकर आचरण करो।
--सूत्रकृतांग ( १/८/२६) ___ बुच्चमाणो न संजले। यदि साधक को कोई अपशब्द कहे, तो भी वह उस पर गरम न हो-क्रोध न करे।
-सूत्रकृतांग ( १/६/३१) सुमणे अहियासेज्जा, न य कोलाहलं करे। साधक को जो भी कष्ट हो, प्रसन्नचित्त से सहन करे, कोलाहल न करे ।
-सूत्रकृतांग ( १/६/३१)
त्यागी
जे य कते पिए भोए, लद्ध वि पिढि कुम्वई ।
साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चई ॥ वही सच्चा त्यागी कहलाता है जो अपने को प्रिय, प्रियतर और प्रियतम
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