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न इस लोक के लिए तप करना चाहिये, और न परलोक के लिए तफ करना चाहिये, ऐसे ही कीर्ति, वर्ण, शब्द व श्लोक के लिए भी तप नहीं करना चाहिये। सिर्फ कर्मनिर्जरा के लिए ही तप करना चाहिये इसके सिवा अन्य के लिए नहीं।
-दशवैकालिक (E/४/४) विविहगुणतवोरए निच्यं, भवइ निरासए निजरट्टिए । तवसा धुणइ पुराणपावर्ग, जुत्तो सया तवसमाहिए ।
विविधगुण वाले तप में जो सदा रत रहता है, वह लौकिक आशाओं से दूर होता है, तथा निर्जरा को चाहने वाला जो साधु तपः समाधि में सदा लगा रहा है, वह उस तपस्या से प्राचीन पाप को दूर करता है ।
-दशवैकालिक (E/४/४) जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे । उस्सचिणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥ एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे ।
भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा निजरिजई ॥ किसी बड़े तालाब का जल, जल आने के मार्ग को रोकने से, पहले के जल को उलीचने से और सूर्य के ताप से क्रमशः जैसे सूख जाता है उसी प्रकार संयमी के करोड़ों भवों के संचित कर्म, पाप-कर्म आने के मार्ग को रोकने पर तप से नष्ट हो जाते हैं।
-उत्तराध्ययन ( ३०/५-६)
तितिक्षा
एस वीरे पंससिए, जे ण णिविजति आदाणाए ।
जो अपनी साधना में उद्विग्न नहीं होता है, वही वीर साधक प्रशंसित होता है ।
-आचारांग (१/२/४) वोसिरे सव्वसो कायं, न मे देहे परीसहा । १३२ ]
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