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नहीं होती है, उसी प्रकार ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रीय ज्ञान युक्त जीव संसार में प्रविष्ट होकर भी नष्ट नहीं होता ।
जो अप्पाणं जाणदि, असुर- सरीरादु जाणग रूव-सरूवं, सो सत्थं
जो आत्मा को इस अपवित्र देह से तत्त्वतः जानता है, वही समस्त शास्त्रों का ज्ञाता है ।
- भक्त - परिज्ञा ( ८६ )
तच्चदो भिन्नं ।
जाणदे सव्वं ॥
भिन्न और ज्ञायक भाव रूप
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा (४६५)
मेधाविणो लोभमया वतीता, संतोसिणो नो पकरेंति पावं । मेधावी पुरुष लोभ एवं मद से अतीत और सन्तोषी होकर पाप नहीं
करते ।
- सूत्रकृतांग ( १ / १२ / १५ )
खवेदि
जं अण्णाणी कम्मं, खवेदि तं णाणी तिहिं गुत्तो, बाल-तप के द्वारा हजारों जन्मों में जितने करता है, उतने कर्म मन, वाणी और शरीर को साधक एक श्वास में क्षय कर देता है ।
भवसयसहस्स - कोडीहिं । उस्सासमेत्तेण ॥
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ज्ञानी- अज्ञानी
कर्म अज्ञानी साधक क्षय संयमित रखनेवाला ज्ञानी
- प्रवचनसार ( ३/३८ )
जागरन्ति ।
सुन्ता अमुणी, मुणिणो सया अज्ञानी साधक सदैव सोये रहते हैं और ज्ञानी सदैव जागृत रहते हैं । - आचाराङ्ग ( १/३/१ )
न कम्मुणा कम्म खवेंति बाला । अकम्मुणा कम्म खर्चेति धीरा ॥ अज्ञानी कर्म से कर्म का नाश नहीं कर पाते किन्तु ज्ञानी धैर्यवान् मनुष्य कर्म से कर्म का क्षय कर देते हैं ।
- सूत्रकृताङ्ग ( १/१२/२५)
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