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ववहारेणुवदिस्सर णाणिस्स चरितं दंसणंणाणं ।
ण वि णाणं ण वरितं न दंसणं जाणगो सुद्धो ॥
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व्यवहार नय से यह कहा जाता है कि ज्ञानी के चारित्र होता है, दर्शन होता है और ज्ञान होता है किन्तु निश्चय - नय से चारित्र है और न दर्शन है । ज्ञानी तो शुद्ध ज्ञायक है ।
उसके न ज्ञान है, न
- समयसार (७)
जह कणयमग्गितवियं पि, कणयभावं ण तं परिच्चयइ । तह कम्मोदय तविदो, ण जहदि णाणी दु णाणित्तं ॥
जैसे स्वर्ण अग्नि से तप्त होने पर भी अपने स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता, वैसे ही ज्ञानी भी कर्म के उदय के कारण उत्तप्त होने पर भी स्वयं के स्वरूप का त्याग नहीं करते हैं ।
समिक्
अप्पणा
पंडिए तम्हा, सच्चमेसेज्जा, मेन्ति
- समयसार ( १८४ )
बहू |
भूपसु कप्पए ॥
पासजाइपहे
पंडित पुरुष प्रचुर पाशों बन्धनों व जाति-पथों - चौरासी लाख योनियों की समीक्षा कर स्वयं सत्य की गवेषणा करे और सब जीवों के प्रति मैत्री का आचरण करे ।
लणं णिहि एक्को, तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते । तह णाणी णाणणिहिं, भुंजेइ चइत्तु परततिं ।।
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- उत्तराध्ययन ( ६ / २ )
जैसे कोई मनुष्य निधि मिलने पर उसका उपयोग स्वजनों के मध्य करता है, वैसे ही ज्ञानीजन प्राप्त ज्ञान-निधि का उपयोग पर द्रव्यों से विलग होकर स्वयं में ही करता है ।
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सूई जहा ससुत्ता, न नस्लई कयवरम्मि पडिआ वि जीवो वि वह ससुन्तो न नस्सई गओ वि संसारे ॥ जिस प्रकार धागे में
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- नियमसार (१५७ )
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पिरोई हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी गायब
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