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नाणमि असंतंमि, चारित्तं वि न विज्जए । ज्ञान के अभाव में चारित्र भी नहीं है ।
-व्यबहार भाष्य (७/२१७) संसयविमोहविब्भमविवज्जियं अप्परससरुवस्स ।
गहणं सम्मणणाणं॥ आत्मा व अनात्मा के स्वरूप को संशय, विमोह और विभूम-रहित जानना सम्यग्ज्ञान है।
-द्रव्यसंग्रह (४२) महवकरणं णाणं तेणेव य जे मदं समुवहति । ऊणगभायणसरिसा, अगदो वि पिसायते तेसि ॥ ज्ञान मानव को मृदु बनाता है, लेकिन जो मनुष्य उससे भी मदोद्वत होकर अघजलगगरी की तरह छलकने लग जाता है, उनके लिए अमृत स्वरूप औषधि भी विष बन जाती है ।
-बृहत्कल्पभाष्य (७५३) जेण तवं विबुज्झेज, जेण चित्तं णिरुज्झदि ।
जेण अत्ता विसुज्झेज, त णाणं ॥ जिससे तत्त्व का बोध होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा शुद्ध होती है, उसी को ज्ञान कहा गया है।
-मुलाचार (५८५) णाणेण झाणसिझी, झाणादो सम्वकम्म णिजरणं । णिज्जरफलं मोक्खं, णाणब्भासं तदो कुज्जा ।। ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है । अतः सतत् ज्ञानाभ्यास करना चाहिए ।
-रयणसार (१५७), तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनियोहियं ।
ओहिनाणं तु तइयं, मणनाणं व केवल ॥ ११६ ]
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