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गुणोदय रायंगणम्मि परिसंठियस्स जह कुंजरस्स माहप्पं । विझसिहरम्मि न तहा ठाणेसु गुणा विसन्ति ।।
जिस तरह राजा के आंगन में स्थित हाथी की महिमा होती है, किन्तु विन्ध्य पर्वत के शिखर-स्थित हाथी की महिमा नहीं होती है, उसी तरह उचित स्थानों पर गुण खिलते हैं।
-वज्जालग्ग (७५/१)
गुरु
अपरिस्साची सोमो, संगहसीलो अभिग्गह मईअ । अवित्थणो अचवलो, पसंत हियओ गुरु होई ॥
किसी के दोष-गुणोंको दूसरे से न कहनेवाले, देदीप्यमान चेहरेवाले शिष्यों के लिए वस्त्र, पात्र एवं पुस्तकों का संग्रह करनेवाले, किसी विषय को समझ लेने में समर्थ बुद्धिवाले, अपनी प्रशंसा न करनेवाले या मितभाषी, स्थिर और प्रसन्न हृदयवाले गुरु होते हैं ।
-सार्थपोसहसज्झायसूत्र (१०)
जह सुर गणाण इंदो, गहगण तारागणाण जह चंदो । जहय पयाण परिंदो, गणस्स वि गुरु तहाणंदो ।।
जिस तरह इन्द्र देवताओं को, चन्द्रमा ग्रह-नक्षत्रों को, राजा प्रजाजनों को सुख प्रदान करते हैं, उसी तरह गुरु अपने गच्छ में शिश्यवर्ग को आनन्द दिया करते हैं।
-सार्थपोसहसज्झायसूत्र (७) णियमगइ विगप्पिय, चिंतिएण सच्छंद बुद्धि चरिएण। कत्तो पारत्तहियं, कीरइ गुरु अणुवएसेण ।।
गुरु के उपदेश को ग्रहण करने में असमर्थ अथवा उच्छं खलता से अपनी बुद्धिमानी के घमण्ड से गुरु-वचन की अवहेलना करके जो शुभानुष्ठान और क्रियाएँ परलोक में हितकर होने के ख्याल से की जाती हैं, वे वहाँ हितकारी
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