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तृतीयकाण्डम्
नानार्थवर्गः ३. सस्ये हेतुकृते, शीलं सवृत्त सत्स्वभावयोः । नेत्ररुट् छदिषोः क्लीबं वृन्दे ने पटैलं पुमान् ॥२२३॥ और्वाग्नावपि पातालं मूल भाऽऽध शिफासु च । इतिलान्ताः।
ध्रुवं स्यान्निश्चिते भेना शाश्वते त्रिष्वथोत्सवः ॥२२४॥ इच्छायाः प्रसवेऽमर्पोत्सेकादिषु महे,दवः । दावश्व वन वन्याग्नी आह्वानाऽऽज्ञाऽध्वरा हवाः ॥२२५॥ मन्त्री सहायः सचिवो धवः पति नृ शाखिनः । शैलोऽर्कमेषा वयः सत्ताऽभिप्राय जन्मसु ॥२२६॥
भावश्चेष्टादिके गौरी केरवेतु शिवा भवः ।। (१) 'शोला सद्वृत्त सत्स्वभाव में नपुं०। (२) 'पटल' पिटक परिच्छद छदिष (गृहाच्छादन) नेत्ररुट् तिलक में नपुं०, वृन्द में स्त्री० नपुं०। (३) 'पाताल' नागलोक विवर वडवानल में नपुं०। (४) 'मूल' नक्षत्र आदि जटा मूलधन में नपुं०, अन्तिक में पुः । इति लान्ताः।। (५) 'ध्रुव' कील शिव शंकु वसु योग वट मुनि में पु०, मूर्वा शालिपर्णी गीति सुरभेद में स्त्री०, निश्चित तर्क निश्चल में नपुं०, शाश्वत में त्रि० । (६) 'उत्सव' इच्छा प्रसव अमर्ष उत्सेक (घमण्ड) मह में पु० । (७) 'दवदाव' वन और वनाग्नि में पु० । (८) 'इव' माह्वान आज्ञा अधर में पु० । (९) 'सचिव' मन्त्री सह य में पु० । (१०) 'धव' पति नर (धूर्त) वृक्षविशेष में पु० । (११) 'अवि' शैल मर्क मेष (नाथ मुषिककम्बल) में पु०, भू पुष्पवती में स्त्री० । (१२) 'भाव' सत्ता अभिप्राय जन्म स्वभाव चेष्टा आत्मा क्रिया ल ला पदार्थ विभूति बन्धु जन्तु इत्यादि में पु० । (१३) 'शिवा' गौरी कोष्ट्री
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