________________
तृतीयकाण्डम् ३१६
नानार्थवर्गः ३ उधान वनभेदः स्या निःमृतिश्च प्रयोजनम् । समानः सत्समैकेषु तरैस्वी वेगि शूरयोः ॥१३७॥ साधनाऽवाप्ति तोषष्वाराधन बुद्धिचिह्नयोः । प्रज्ञानमभिमानस्तु दर्प प्रणयहिंसयोः ॥१३८॥ पुस्तकाऽऽहव तन्त्रेषू त्यानं पौरुषेऽपि च शक्र धातुकमत्तभ वषुकाब्दा घनाघनः ॥१३९॥ दाने न्यासार्पणेऽरीणां शुद्धौ निर्यातनं स्मृतम् । व्यसनं भ्रंश विपदो दोषे कामजकोपजे ॥१४॥ मेधे निरन्तरे मूर्ति गुणे मूर्ते धनस्त्रिधु ।
(१) 'उद्या।' वनभेद निः सृति प्रयोजन में नपुं० । (२) 'समान' मत् सम एक में त्रि०, नाभि वायु में पु०। (३) 'तरस्वी' वेगवान् भर में त्रि० । (४) 'आराधन' माधन अवाप्ति तोषण में नपुं० । (५) 'प्रज्ञान' बुद्धि और चिह्न में नपुं० । (६) 'अभिमान' अर्थ आदि के दर्प में अज्ञान प्रणय हिंसा में नपुं० । (७) — उत्थान' तन्त्र में अर्थ त् कुटुम्ब कृत्य मिद्धांत औषधोत्तम प्रधान तन्तुवाय (तन्तुवान) शस्त्रभेद परिच्छद श्रुतिशाखांतर उभयार्थप्रयोजक हेतु में पुस्तक रण में (मेदिनीकोष के मत से प्राङ्गण उद्गम हर्म्य मलवेग में) नित्य नपुं० । (८) 'धनाघनः' शुक्र घातुक मत्तेभ (पागल हाथी) वर्ष काब्द अर्थात् वर. सनेवाला बादल अथवा संवत्सर में पु०, (धरणि कोषने अन्योन्य घट्टन और धातुक में ही 'धनाधन' है ऐसा माना है) । (९) 'निर्यातन' दान में न्यासापर्ण में वैरशुद्धि में नपुं० । ( १० ) 'व्यसन' भ्रंश में अर्थात् अधः पतन में दैवानिष्ठ फल में निष्फलोद्यम में पाप में अशुभ में सक्ति में कामजदोष मृगया धूत पानादि में कोपजदोष वाक्पारुष्य दण्डपारुष्य अर्थ दूषण आदि में नपुं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org