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तृतीय काण्डम्
३०६
नानार्थवर्गः ३
विविक्तो' विजने पूतेऽभिजातः कुलजे बुधे । कृत्रिमे भूषिते रास्ते संस्कृतोऽप्यन्यलिङ्गकः ॥ ९४॥ पाणिन्यादि कृते सूत्रे क्लीबं युक्तेऽस्ति संस्कृते । मण्यिप्यभिनीतोऽथाऽनेन्तो निरवधौ त्रिषु ॥ ९५ ॥ निवासे ढ सन्नाहे निवातो वातवर्जिते । कृतेऽग्रतोऽभियुक्तानां पूजने वाऽग्रतः कृते ॥ ९६॥ पुरस्कृतोऽम्ल परुषौ तनुतेशु मुच्यते । साध्वभ्यर्हित' सत्येषु विद्यमान प्रशस्तयोः ॥९७॥
(१) 'विविक्त' असंपृक्त रहः पूत विवेकी में त्रि० । (२) 'अभिजात' कुलीन न्याय्य पण्डित में त्रि० । (३) 'संस्कृत' कृत्रिम भूषित शस्त (प्रशंसा योग्य) अर्थ में अन्यलिङ्ग है पाणिन्यादि कृत सूत्र में नपुं० । (४) 'अभिनीत ' युक्त अतिसंस्कृत म (मर्षि) में त्रि० । (५) 'अनन्त निरवधि में त्रि०, केशव शेष में पु०, विशल्या शारिवा दूर्वा कणा दूरालमा पथ्या पार्वती आमलकीं विश्वम्भरा गुडची में स्त्री०, सुखवहमें में नपुं० । (६) 'निवास' 'निवास दृढ़कवच वातवर्जित में पु० । (७) 'पुरस्कृत ' आदरणीयो में सर्वप्रथम आदर पाने वाले एवं शत्रुओं से लड़ने के समय में आगे लडने वाले अर्थ में त्रि० । (८) 'शुक्त आयुर्वेद प्रक्रिया से जब गुड सहद अम्ल परुष हो जाय तब उसका नाम शुक्त होता है नपुं० (मृन्मयादि शुचौ भाण्डे सगुडां क्षुद्रमाक्षिकं । धान्यराशौ त्रिरात्रस्थं शुक्तं चुक्रं तदुच्यते ॥ वैद्यकम् (९) 'सत्' साधु अभ्यर्हित सत्य विद्यमान प्रशस्त में साधु धीर प्रशस्त में पु०, मान्य सत्य विद्यमान में त्रि०, साध्वी में स्त्री० ।
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