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तृतीयकाण्डम्
नानार्थवः बृहेती क्षुद्रवार्ताक्यां छन्दो वसनयोरपि ॥८९।। जीवाऽनपेक्षिकर्माऽत्याहितं यच्च महद्भयम् । भूतं जन्तु पिशाचादौ पुमान्देवे त्रिचिते ॥९॥ जनापवाद निर्वाद दुष्ट गहित वस्तूनि । अङ्कगीतस्त्रिषु श्वेत रूप्ये स्यादन्यवत्सिते ॥११॥ शुद्ध सितेऽवदातः स्यात्पीते बद्धार्जुनौ सितः। उत्थिता स्तुद्यतोत्पन्न वृद्धिमन्तः त्रिच्छ्रिता: ॥१२॥
प्रवृद्धोगद्ध संजाता "आदृतः सादरेऽर्चिते। मूच्छितो"मूढः सोच्छायो प्रतीतः ख्यातहृश्योः ॥१३॥ (१) 'वृहती' क्षुद्रवार्ता की (बैगन) कण्टकारि (मोरिङ्गिनी) वाकु वारिधानी (पानी की कोठो) महती छन्दोभेद वसनभेद में स्त्रो० । (२) 'अत्याहित' जीवानपेक्षिक्रम में महाभिति में नपुं० । (३) 'भूत' जन्तु पिशाचादिवमादि में नपुं०, देवयोनि विशेष में पु० , उचित प्राप्त वृत्त सम सत्य में त्रि० । (४) 'अवगोत' जनारवाद निर्वाद दुष्ट (दृष्ट) और गर्हितवस्तुओं में त्रि० । (५) 'श्वेत' द्वीपभेद आदिभेद में पु०, श्वेता'. वराटिका काष्ठ पाटला शंखिनी में श्रो०, शेतं' रूप्य में नपुं०, सित में अन्यत्रत् हैं । (६) 'अवदार' शुद अर्थात् निर्मल में श्वेत में पातमें त्रि० । (७) 'सित' अवसित अर्थात् बुद्ध बद्ध धवल त्रि०, शर्करा में स्त्री० । (८) 'उत्थित' प्रोद्यत उत्पन्न वृद्धिमान् में त्रि० । (९) 'उच्छ्रित प्रवृद्ध समुन्नद् संजात में त्रि० । (१०) आदृत' सादर व्यवहार में अर्चित अथांत सम्मानित में त्रि. । (११) 'मूञ्छित' मुढ और सोच्छाय में त्रि० । (१२) 'प्रतीत' ज्ञात प्रज्ञात हृष्ट सादर में त्रि० ।
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