________________
तृतीयकाण्डम्
मानार्थवर्ग: सुरे वृन्दारकः श्रेष्ठे मनोज्ञे त्रिषु दाम्भिकः ॥१८॥ तथा कोक्कुटिकोऽपि स्याद् योऽदूरे प्रहिते क्षणः । मुख्याऽन्य केवलेष्वेकं त्रिषु वृन्दारकादयः ॥१९॥
इति कान्ता । कार्याऽक्षमः प्रभो लाभदर्शी लालाटिकः स्मृतः। शंखोऽस्त्री निधिभालास्योः कम्बोजा खं' पुरादिषु ॥२०॥ "शिलीमुखोऽलौबाणे च शिखी ज्याला घणी अपि । मयूखः किरणे ज्याला शोभयोः शैलवृक्षयोः ॥२१॥
इति खान्ताः । नगाऽगौ स्याद्भगः सूयें श्रीकामादौ नपुंसकम् ।
(१) सुर अर्थ में 'वृन्दारक' पु०, श्रेष्ठ मनोज्ञ में त्रिलिङ्ग । (२) अदूरदर्शी (मूर्ख) अर्थ में 'दाम्भिक और कौक्कुटिक' है प्रिलिङ्ग । (३) मुख्य अन्य केवल अर्थ में 'एक' है त्रि० । (४) कार्य करने में असमर्थ होते हुए भो स्वामी का लाभ मार्ग ढूढ़ कर निकालने वाले का नाम-लालाटिक है ॥इति कान्ता॥
(५) निधि, ललाट, अस्थियों में पु०, नपुं० कम्बु में पु. शंख है। (६) पुर इन्द्रिय क्षेत्र शून्य विन्दु विहायस् (आकाश) संवेदन देवलोक शर्मन् में 'खं' है नपुं० । (७) भ्रमर बाण में 'शिलीमुख' है पु० । (८) ज्वाला किरण शाखा बर्हिचूड़ा लाङ्ग लिकी (करिहारी) अग्रमात्रा चूडामात्र शिफा प्रपद (पादान) अर्थों में 'शिवा' हैं स्त्री० । (९) किरण ज्वाला शोभा अर्थों में 'मयूख' है पु० ।
॥इति वान्ताः । (१०) शैल (पर्वत) वृक्ष अर्थ में नग और भग' पु० (११) सूर्य अर्थ में 'भग' पु०, मोक्ष श्री योनि वीर्य इच्छा ज्ञान वैराग कोर्ति माहत्म्य ऐश्वर्य यत्न धर्म में नपुं० ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org