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तृतीयकाण्डम्
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प्रकीर्णवर्गः १ परस्परं मिथोऽन्योऽन्य मितरेतर मित्यपि। घृतादीनां द्रवीभावे आधारो द्रव इत्युभौ ॥२२॥ न्यायो नीतौ भ्रमोभ्रान्तौ व्यधो वेधे रणः कणे। न्याय्यं न्यायपथोपेते 'प्लोषो दाहे वैरः पतिः॥२३॥ परम्परोपदेशे स्या-दाम्नायो 'ग्रहणे ग्रहः।
स्फुरणा स्फुरणं स्फूतयदृच्छा स्वैरिते समे ॥२४॥ ... स्फोति वृद्धौ क्षियोहासे जागैर्या जागरे समे ।
(१) एक दूसरे से तुल्य अर्थ में चार नाम-परस्पर १, नपुं०, मिथस् २ अव्यय, अन्योन्य ३ इतरेतर ४ नपुं० (२) पिघले हुए घी आदि के दो नाम-आधार १ द्रव २ पु. (३) न्याय देशकालोचित के दो नाम-न्याय १ पु०, नीति २ स्त्री० । (४) भ्रमात्मक ज्ञान के दो नाम-भ्रान्ति (मिथ्यामिति) १ स्त्री०, भ्रम २ पु० । (५) वेधन के दो नाम-व्यध १ वेध २ पु० । (६) शब्दायमान अर्थ में दो शब्द-रण १ कण २ पु० । (७) अकाटय न्याय के एक नाम-न्याय १ त्रि० । (८) दाह अर्थ में प्लोष पु० । (९) पति अर्थ में 'वर' १ पु० । (१०) गुरुपरम्परा से आगत उपदेश के एक नाम-आम्नाय १ (११) ग्रहण करने के दो नाम-ग्रहण १ नपुं०, ग्रह २ पु० । (१२) स्फूर्ति के तीन नाम-स्फुरणा १ स्फूर्ति २ स्त्री०, स्कुरण ३ नपुं० । (१३) मन चाहे करने के दो नाम-यहच्छा १ स्वैरिता २ स्त्री० । (१४) वृद्धि अर्थ में 'स्फाति' है स्त्रो० । (१५) हास अर्थ में 'क्षिया' है स्त्री० । (१६) जागते रहने के दो नाम-जागर्या १ जागरा २ स्त्री० !
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