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वारिषेण मुनिको कथा और दान, व्रत, पूजा आदि सत्कर्मोके करनेमें सदा तत्पर रहा करता था। वह वारिषेण मुनिको भिक्षार्थ आये हुए देखकर बड़ी प्रसन्नताके साथ उनके सामने गया और भक्तिपूर्वक उनका आह्वान कर उसने नवधा भक्ति सहित उन्हें प्रासुक आहार दिया। आहार करके जब वारिषेण मुनि वनमें जाने लगे तब पुष्पडाल भी कुछ तो भक्तिसे, कुछ बालपनेकी मित्रताके नातेसे और कुछ राजपुत्र होनेके लिहाजसे उन्हें थोड़ी दूर पहुँचा आनेके लिए अपनी स्त्रीसे पूछकर उनके पीछे-पीछे चल दिया। वह दूरतक जानेकी इच्छा न रहते हुए भी मुनिके साथ-साथ चलता गया। क्योंकि उसे विश्वास था कि थोड़ी दूर गये बाद ये मुझे लौट जानेके लिए कहेंगे हो। पर मुनिने उसे कुछ नहीं कहा, तब उसकी चिन्ता बढ़ गई। उसने मुनिको यह समझानेके लिये, कि मैं शहरसे बहुत दूर निकल आया हूँ, मुझे घरपर जल्दी लौट जाना है, कहा-कुमार, देखते हैं यह वही सरोवर है, जहाँ हम आप खेला करते थे, यह वही छायादार और उन्नत आमका वृक्ष है, जिसके नीचे आप हम बाललीलाका सुख लेते थे; और देखो, यह वही विशाल भूभाग है, जहाँ मैंने और आपने बालपनमें अनेक खेल खेले थे। इत्यादि अपने पूर्व परिचित चिह्नोंको बार-बार दिखलाकर पुष्पडालने मनिका ध्यान अपने दूर निकल आनेकी ओर आकर्षित करना चाहा, पर मुनि उसके हृदयकी बात जानकर भी उसे लौट जानेको न कह सके । कारण वैसा करना उनका मार्ग नहीं था। इसके विपरीत उन्होंने पुष्पडालके कल्याणकी इच्छासे उसे खूब वैराग्यका उपदेश देकर मुनिदीक्षा दे दी। पुष्पडाल मुनि हो गया, संयमका पालन करने लगा और खूब शास्त्रोंका अभ्यास करने लगा; पर तब भी उसकी विषयवासना न मिटी, उसे अपनी स्त्रीको बार-बार याद आने लगी । आचार्य कहते हैं कि
धिक्कामं धिङ्महामोहं धिङ्भोगान्यैस्तु वंचितः। सन्मार्गेपि स्थितो जन्तुर्न जानाति निजं हितम् ॥
ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्-उस कामको, उस मोहको, उन भोगोंको धिक्कार है, जिनके वश होकर उत्तम मार्गमें चलनेवाले भी अपना हित नहीं कर पाते । यही हाल पुष्पडालका हुआ, जो मुनि होकर भी वह अपनी स्त्रीको हृदयसे न भुला सका।
इसी तरह पुष्पडालको बारह वर्ष बीत गये । उसकी तपश्चर्या सार्थक होनेके लिए गुरुने उसे तीर्थयात्रा करनेकी आज्ञा दी और उसके साथ वे
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