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आराधना कथाकोशः
सच्चा हाल कह दूं । ऐसा करनेसे वे मुझे क्षमा भी कर सकेंगे। यह विचार कर विद्युत् चोर महाराज के सामने जा खड़ा हा और हाथ जोड़कर उनसे बोला -- प्रभो, यह सबक मेरा है । पत्रात्मा वारिषेण स्वंथा निर्दोष है । पापिनी वे था; पर आजसे मैं कभी
के जामें फँस
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मैं यह नीच काम या T मुझे दया करके नमा
ऐसा काम नहीं
कीजिये ।
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विद्युत् चोरको अपकृतकर्मके पश अभय देकर अपने प्रिय एत्र वारिषेणसे बो तुम्हारी माता तुम्हारे वियोगसे बहुत दुखी
दुखी देख श्रेणिक उसे
मु. अब राजधानी में चलो,
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होंगी।
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उत्तरमें वारिषेणने कहा - पिताजी, मुझे क्षमा कीजिये। मैंने संसारकी लीला देख ली । मेरा आत्मा उसमें और प्रवेश करनेके लिये मुझे रोकता है । इसलिये में अब घरपर न जाकर जिनभगवान्के चरणोंका आश्रय ग्रहण करूँगा । सुनिये, अबसे मेरा कर्तव्य होगा कि मैं हाथ हीमें भोजन करूँगा, सदा वनमें रहूँगा और मुनि मार्गपर चलकर अपना आत्महित करूँगा मुझे अब संसार में पैठनेकी इच्छा नहीं, विषयवासनासे प्रेम नहीं। मुझे संसार दुःखमय जान पड़ता है, इसलिये मैं जान-बूझकर अपनेको दुःखोंमें फँसाना नहीं चाहता । क्योंकि —
निजे पाणी दीपे लसति भुवि कूपे निपततां फलं किं तेन स्यादिति- जीवंधरचम्पू अर्थात् - हाथमें प्रदीप लेकर भी यदि कोई कुँएमें गिरना चाहे, तो बतलाइये उस दीपकसे क्या लाभ ? जब मुझे दो अक्षरोंका ज्ञान है और संसारकी लीलासे मैं अपरिचित नहीं हूँ; इतना होकर भी फिर में यदि उसमें फँसूं, तो मुझसा मूर्ख और कौन होगा ? इसलिये आप मुझे क्षमा कीजिये कि मैं आपकी पालनीय आज्ञाका भी बाध्य होकर विरोध कर रहा हूँ। यह कहकर वारिषेण फिर एक मिनट के लिए भी न ठहर कर वनकी ओर चल दिया और श्रीसूरदेव मुनिके पास जाकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली ।
तपस्वी बनकर वारिषेण मुनि बड़ी दृढ़ताके साथ चारित्रका पालन करने लगे । वे अनेक देशों-विदेशों में घूम-घूम कर धर्मोपदेश करते हुए एकबार पलाशकूट नामक शहर में पहुँचे । वहाँ श्रेणिकका मन्त्री अग्निभूति रहता था । उसका एक पुष्पडाल नामका पुत्र था । वह बहुत धर्मात्मा था
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