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रेवतो रानीकी कथा करनेको गये। राजा, भव्यसेन आदि भी उनमें शामिल थे। तीर्थकर भगवान : दर्शनोंके लिये भी रेवती रानीको न जाती हुई देखकर सबका बड़ा पाच हुआ । बहतोंने उससे चलने के लिये आग्रह भी किय,८ वह न गई। कारण वह सम्यक्त्वरूप मौलिक रत्नसे भूषित भी, से 'जनभगवा चनोंपर पूरा विश्वास था कि तीर्थंकर परम देव बिन ही होते हैं, औः वासुदेव नौ और रुद्र ग्यारह होते हैं । फिर उनकी संन्हा को तोड़ने ले ये दशवें वासूदेव, बारहवें रुद्र और पच्चीसवें ताक आ कहाँसे किते हैं ? वे तो अपने-अपने कर्मों के अनुसार जहाँ उन्हें था वहाँ च गये। फिर यह नई सृष्टि कैसी ? इनमें न तो कोई र, रुद्र है, न वासुदेव है, और न तीर्थंकर है, किन्तु कोई मायावी ऐन : लक अपनी धूर्ततासे लोगोंको ठगनेके लिये आया है। यह विचार . वती रानी तीर्थंकरकी वन्दनाके लिये भी नहीं गई। सच है कहीं से मेरु पर्वत भी चला है ?
इसके बार चन्द्रप्रभ, क्षुल्लक-वेष हीमें, पर अनेक प्रकारको र धियोंसे युक्त तथा अन्त मलिन शरीर होकर रेवतीके घर भिक्षा के लिः, पहुँचे। आँगनमें पहुंच ही वे मूच्र्छा खाकर पृथ्वीपर धड़ामसे गिर गई। उन्हें देखते ही धम सला रेवती रनी हाय-हाय कहती हुई उनके . न दौड़ी गई और बर्ड भक्ति और विनयसे उसने उन्हें उठाकर सचे कया । इसके बाद ॐ ने महल में लिा जाकर बड़े कोमल और परिभावोंसे उसने उन्हें सुक आहार कराया। सच है जो दयावान हो । उनको बुद्धि दान दे । स्वभावहीसे तत्पर रहती है।
क्षुल्लक अबतक भी रेवतीको परोक्षासे सन्तोष नहीं आ । सो उन्होंने भोज करने के साथ ही वमन कर दिया, जिसमें अज दुर्गन्ध आ रही थो शुल्लककी यह हालत देखकर रेवतीको बहुत दुख हुआ । उसने बहुत श्चात्ताप किया कि न जाने क्या अपथ्य मुझ पापिनीके द्वारा दे दिया गया, जिससे इनकी यह हालत हो गई। मेरी इस असावधानताको धिक्कार है । इस प्रकार बहुत कुछ पश्चात्ताप करके उसने क्षुल्लकका शरीर पोंछा और बाद कुछ-कुछ गरम जलसे उसे धोकर साफ किया ।
क्षुल्लक रेवतीकी भक्ति देखकर बहुत प्रसन्न हुए। वे अपनी माया समेट कर बड़ी खुशीके साथ रेवतीसे बोले–देवी, संसारश्रेष्ठ मेरे परम गुरु महाराज गप्ताचार्यकी धर्मवद्धि तेरे मनको पवित्र करे, जो कि सब सिद्धियोंकी देनेवाली है और तुम्हारे नामसे मैंने यात्रामें जहाँ-जहाँ
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