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अनन्तमतीकी कथा
किये हुई देखकर कुण्डलमंडित के प्राणदेवता एक साथ शीतल पड़ गये । उसके शरीरको काटो तो खून नहीं । ऐसो स्थितिमें अधिक गोलमाल होनेके भपसे उसने बड़ी फुर्ती के साथ अनन्तमतोको एक पर्णलध्वी नामकी विद्याके आधीन कर उसे एक भयंकर वनी में छोड़ देनेकी आज्ञा दे दी और आप पत्नी के साथ घर लौट गया और उसके सामने अपनी निर्दोषताका यह प्रमाण पेश कर दिया कि अनन्तमती न तो विमानमें उसे देखनेको मिली और न विद्याके सुपुर्द करते समय कुण्डलमंडितने ही उसे देखने दी ।
उस भयंकर बनी में अनन्तमती बड़े जोर-जोरसे रोने लगी, पर उसके रोने को सुनता भी कौन ? वह तो कोसोंतक मनुष्यों के पदचारसे रहित थी । कुछ समय बाद एक भोलोंका राजा शिकार खेलता हुआ उधर आ निकला। उसने अनन्तमतीको देखा। देखते हो वह भी काम के बाणोंसे घायल हो गया और उसी समय उसे उठाकर अपने गाँवमें ले गया । अनन्तमती तो यह समझी कि देवने मुझे इसके हाथ सौंपकर मेरी रक्षा की है और अब मैं अपने घर पहुँचा दो जाऊँगी। पर नहीं, उसकी यह समझ ठीक नहीं थी । वह छुटकारे के स्थानमें एक और नई विपत्तिके मुखमें फँस गई ।
राजा उसे अपने महल ले जाकर बोला – बाले, आज तुम्हें अपना सौभाग्य समझना चाहिये कि एक राजा तुमपर मुग्ध है, और वह तुम्हें अपनी पट्टरानी बनाना चाहता है । प्रसन्न होकर उसकी प्रार्थना स्वीकार करो और अपने स्वर्गीय समागमसे उसे सुखी करो। वह तुम्हारे सामने हाथ जोड़े खड़ा है तुम्हें वनदेवी समझकर अपना मन चाहा वर माँगता है । उसे देकर उसकी आशा पूरी करो । बेचारी भोली अनन्तमती उस पापीकी बातोंका क्या जवाब देती ? वह फूट-फटकर रोने लगी और आकाश पाताल एक करने लगी। पर उसकी सुनता कौन ? वह तो राज्यही मनुष्यजातिके राक्षसों का था ।
भी दया
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भीलराजाके निर्दयी हृदयमें तब भी अनन्तमतीके लिये कुछ नहीं आई । उसने और भी बहुत - बहुत प्रार्थना की, विनय अनुनय किया, भय दिखाया, पर अनन्तमतीने उसपर कुछ ध्यान नहीं दिया । किन्तु यह सोचकर कि इन नारकियों के सामने रोने धोनेसे कुछ काम नहीं चलेगा, उसने उसे फटकारना शुरू किया। उसकी आँखोंसे क्रोधको चिनगारियाँ निकलने लगीं, उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया। सब कुछ हुआ, पर उस भील राक्षसपर उसका कुछ प्रभाव न पड़ा। उसने अनन्तमतीसे
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