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आराधना कथाकोश
उसने तेज आँखें कर दूतकी ओर देखा और उससे कहा-यदि तुम्हें अपनी जान प्यारी है तो तुम यहाँसे जल्दी भाग जाओ। तुम दूसरेके नौकर हो, इसलिए मैं तुम पर दया करता हूँ। नहीं तो तुम्हारी इस धृष्टताका फल तुम्हें मैं अभो हो बता देता । जाओ, और अपने मालिकसे कह दो कि वह रणभूमिमें आकर तैयार रहे । मुझे जो कुछ करना होगा मैं वहीं करूँगा। दूतने जैसे ही करकण्डुकी आँखें चढ़ी देखीं वह उसी समय डरकर राज्यदरबारसे रवाना हो गया । । इधर करकण्डु अपनी सेनामें युद्धघोषणा दिलवा कर आप दन्तिवाहन पर जा चढ़ा और उनकी राजधानोको उसने सब ओरसे घेर लिया। दन्तिवाहन तो इसके लिए पहले हो से तैयार थे । वे भी सेना ले युद्धभूमिमें उतरे । दोनों ओरकी सेनामें व्यूह रचना हुई। रणवाद्य बजनेवाला ही था कि पद्मावतोको यह ज्ञात हो कि यह युद्ध शत्रुओंका न होकर खास पिता-पुत्रका है। वह तब उसो समय अपने प्राणनाथके पास गई और सब हाल उसने उनसे कह सुनाया । दन्तिवाहनको इस समय अपनी प्रिया-पुत्रको प्राप्त कर जो आनन्द हुआ, उसका पता उन्हींके हृदयको है। दूसरा वह कुछ थोड़ा बहुत पा सकता है जिस पर ऐसा ही भयानक प्रसंग आकर कभी पड़ा हो । सर्व साधारण उनके उस आनन्दका, उस सुखका थाह नहीं ले सकते । दन्तिवाहन तब उसी समय हाथीसे उतर कर अपने प्रिय-पुत्रके पास आये । करकण्डुको ज्ञात होते ही वह उनके सामने दौड़ा गया और जाकर उनके पाँवों में गिर पड़ा। दन्तिवाहनने झटसे उसे उठाकर अपनो छातीसे लगा लिया। पिता-पुत्रका पुण्य मिलाप हुआ। इसके बाद दन्तिवाहनने बड़े आनन्द और ठाठबाटसे पुत्रका शहर में प्रवेश कराया । प्रजाने अपने युवराजका अपार आनन्दके साथ स्वागत किया। घर-घर आनन्दउत्सव मनाया गया। दान दिया गया । पूजा-प्रभावना की गई। महा अभिषेक किया गया । गरीब लोग मनचाही सहायतासे खुश किये गये । इस प्रकार पुण्य-प्रसादसे करकण्डुने राज्यसम्पत्तिके सिवा कुटुम्ब-सुख भी प्राप्त किया। वह अब स्वर्गके देवों की तरह सुखसे रहने लगा।
कुछ दिनों बाद दन्तिवाहनने अपने पुत्रका विवाह समारंभ किया। उसमें उन्होंने खूब खर्च कर बड़े वैभवके साथ करकण्डुका कोई आठ हजार राजकुमारियोंके साथ ब्याह किया। ब्याहके बाद हो दन्तिवाहन राज्यका भार सब करकण्डुके जिम्मे कर आप अपनी प्रिया पद्मावतोके साथ सुखसे रहने लगे। सुख-चैनसे समय बिताना उन्होंने अब अपना प्रधान कार्य रक्खा ।
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