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करकण्डु राजाकी कथा
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उस समय हस्तिनापुरका राजा बलवाहन था। इसके कोई संतान न थी। इसकी मृत्यु हो गई । अब राजा किसको बनाया जाय, इस विषयको चर्चा चली । आखिर यह निश्चय पाया कि महाराज का खास हाथी जलभरा सुवर्ण कलश देकर छोड़ा जाय। वह जिसका अभिषेक कर राजसिंहासन पर ला बैठा दे वही इस राज्यका मालिक हो। ऐसा ही किया गया। हाथी राजाको ढूँढ़नेको निकला। चलता-चलता वह करण्डुके पास पहुँचा । वही इसे अधिक पूण्यवान् देख पड़ा। उसी समय उसने करकण्डका अभिषेक कर उसे अपने ऊपर चढ़ा लिया और राज्यसिंहासन पर ला रख दिया। सारी प्रजाने उस तेजस्वी करकण्डुको अपना मालिक हुआ देख खूब जय-जयकार मनाया और खुब आनन्द उत्सव किया। करकण्डुके भाग्यका सितारा चमका । वह राजा हुआ। सच है, जिन भगवान्की पूजाके फलसे क्या-क्या प्राप्त नहीं होता । करकण्डुको राजा होते ही बालदेवको उसकी नष्ट हई विद्याएँ फिर सिद्ध हो गई। उसे उसकी सेवाका मनचाहा फल मिल गया। इसके बाद ही बालदेव विद्याकी सहायतासे करकण्डुकी खास माँ पद्मावती जहाँ थी, वहाँ गया और उसे करकण्डुके पास लाकर उसने दोनों माता-पुत्रोंका मिलाप करवाया। पद्मावती आज कृतार्थ हुई। उसकी वर्षोंकी तपस्या समाप्त हुई। पश्चात् बालदेव इन दोनोंको बड़ी नम्रतासे प्रणाम कर अपनी राजधानी में चला गया।
करकण्डुके राजा होने पर कुछ राजे लोग उससे विरुद्ध होकर लड़नेको तैयार हुए। पर करकण्डुने अपनी बुद्धिमानी और राजनीतिकी चतुरतासे सबको अपना मित्र बनाकर देशभरमें शत्रुका नाम भी न रहने दिया। वह फिर सुखसे राज्य करने लगा। करकण्डुके दिनों-दिन बढ़ते हए प्रतापको खबर चारों ओर फैलती-फैलती दन्तिवाहनके पास पहँची। दन्तिवाहन करकण्डुके पिता हैं। पर न तो दन्तिवाहनको यह ज्ञात था कि करकण्डु मेरा पुत्र है और न करकण्डुको इस बातका पता था कि दन्तिवाहन मेरे पिता होते हैं। यही कारण था कि दन्तिवाहनको इस नये राजाका प्रताप सहन नहीं हुआ। उन्होंने अपने एक दूतको करकण्डुके पास भेजा । दूतने आकर करकण्डुसे प्रार्थना को-"राजाधिराज दन्तिवाहन मेरे द्वारा आपको आज्ञा करते हैं कि यदि राज्य आप सुखसे करना चाहते हैं तो उनकी आप आधीनता स्वीकार करें। ऐसे किये बिना किसी देशके किसी हिस्से पर आपकी सत्ता नहीं रह सकती।" करकण्डु एक तेजस्वी राजा और उस पर एक दूसरेकी सत्ता, सचमुच करकण्डुके लिए यह आश्चर्यकी बात थी। उसे दन्तिवाहनकी इस धुष्टता पर बड़ा क्रोध आया।
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