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________________ शास्त्र - दानकी कथा ४२१ आराधना करना चाहिये । ज्ञान प्राप्त करनेकी पाँच भावनाएँ ये हैंउन्हें सदा उपयोग में लाते रहना चाहिए। वे भावनाएँ हैं - वाचना - पवित्र ग्रन्थका स्वयं अध्ययन करना या दूसरे पुरुषोंको कराना, पृच्छना- किसी प्रकार के सन्देहको दूर करने के लिए परस्पर में पूछ-ताछ करना, अनुप्रेक्षाशास्त्रों में जो विषय पढ़ा हो या सुना हो उसका बार-बार मनन-चिन्तन करना, आम्नाय - पाठका शुद्ध पढ़ना या शुद्ध ही पढ़ाना और धर्मोपदेश - पवित्र धर्मका भव्यजन को उपदेश करना | ये पाँचों भावनाएँ ज्ञान बढ़ानेकी कारण हैं । इसलिये इनके द्वारा सदा अपने ज्ञानकी वृद्धि करते रहना चाहिये | ऐसा करते रहनेसे एक दिन वह आयगा जब कि केवलज्ञान भी प्राप्त हो जायगा । इसीलिये कहा गया कि ज्ञान सर्वोत्तम दान है । और यही संसारके जीवमात्रका हित करनेवाला है । पुरा कालमें जिन-जिन भव्य जनोंने ज्ञानदान किया आज तो उनके नाम मात्रका उल्लेख करना भी असंभव है, तब उनका चरित लिखना तो दूर रहा। अस्तु, कौण्डेशका चरित ज्ञानदान करनेवालों में अधिक प्रसिद्ध है । इसलिए उसीका चरित संक्षेप में लिखा जाता है। जिनधर्म के प्रचार या उपदेशादिसे पवित्र हुए इस भारतवर्ष में कुरुमरी गाँव में गोविन्द नामका एक ग्वाल रहता था । उसने एक बार जंगल में एक वृक्ष की कोटर में जैनधर्मका एक पवित्र ग्रन्थ देखा । उसे वह अपने घर पर ले आया और रोज-रोज उसकी पूजा करने लगा। एक दिन पद्मनंदि नाम महात्माको गोविन्दने जाते देखा । इसने वह ग्रन्थ इन मुनिको भेंट कर दिया । यह जान पड़ता है कि इस ग्रंथ द्वारा पहले भी मुनियोंने यहां भव्यजनों को उपदेश किया है, इसके पूजा महोत्सव द्वारा जिनधर्मकी प्रभावना की है और अनेक भव्यजनोंको कल्याण मार्गमें लगाकर सच्चे मार्गका प्रकाश किया है । अन्त में वे इस ग्रंथको इसी वृक्षकी कोटर में रखकर विहार कर गए हैं। उनके बाद जबसे गोविन्दने इस ग्रन्थको देखा तभी से वह इसकी भक्ति और श्रद्धासे निरन्तर पूजा किया करता था । इसी समय अचानक गोविन्दकी मृत्यु हो गई । वह निदान करके इसी कुरुमरी गाँव में गाँव के चौधरी के यहाँ लड़का हुआ । इसकी सुन्दरता देखकर लोगों की आँखें इस परसे हटती ही न थीं, सब इससे बड़े प्रसन्न होते थे । लोगोंके मनको प्रसन्न करना, उनकी अपने पर प्रीति होना यह सब पुण्यहिमा है । इसके पल्ले में पूर्व जन्मका पुण्य था । इसलिये इसे ये सब बातें सुलभ थीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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