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आराधना कथाकोश कि यदि ये निरन्तर विष्णु हो बने रहें। संसारमें बार-बार आने-जानेका इनके पीछे पचड़ा क्यों ? यह विचार कर वे निरन्तर विष्णुपदमें रहकर सुख भोगें इस परोपकार बद्धिसे मैंने मण्डपमें आग लगवा दी । तब आप ही विचार कर बतलाइए कि इसमें मैंने सिवा परोपकारके कौन बुरा काम किया ? और सुनिए, मेरे वचनों पर आपको विश्वास हो, इसके लिए मैं एक कथा आपको सुना हूँ।
"जिस समयकी यह कथा है, उस समय वत्सदेशकी राजधानी कोशाम्बीके राजा प्रजापाल थे । वे अपना राज्यशासन नीतिके साथ करते हुए सुखसे समय बिताते थे। कोशाम्बी में दो सेठ रहते थे। उनके नाम थे सागरदत्त और समुद्रदत्त। दोनों सेठोंमें परस्पर बहुत प्रेम था। उनका प्रेम सदा ऐसा ही दृढ़ बना रहे, इसके लिए उन्होंने परस्परमें एक शर्त की। वह यह कि-"मेरे यदि पुत्री हुई तो मैं उसका ब्याह तुम्हारे लड़केके साथ कर दूंगा और इसी तरह मेरे पुत्र हुआ तो तुम्हें अपनी लड़कीका ब्याह उसके साथ कर देना पड़ेगा।"
दोनोंने उक्त शर्त स्वीकार की। इसके कुछ दिनों बाद सागरदत्तके घर पुत्र जन्म हुआ। उसका नाम वसूमित्र रक्खा। पर उसमें एक बड़े आश्चर्यकी बात थी। वह यह कि-वसुमित्र न जाने किस कर्मके उदयसे रातके समय तो एक दिव्य मनुष्य होकर रहता और दिन में एक भयानक
सर्प।
उधर समुद्रदत्तके घर कन्या हुई । उसका नाम रक्खा गया नागदत्ता । वह बड़ी खूबसूरत सुन्दरी थी। उसके पिताने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार उसका ब्याह वसुमित्रके साथ कर दिया। सच है
नैव वाचा चलत्वं स्यात्सतां कष्टशतैरपि । सत्पुरुष सैकड़ों कष्ट सह लेते हैं, पर अपनी प्रतिज्ञासे कभी विचलित नहीं होते । वसुमित्रका ब्याह हो गया। वह अब प्रतिदिन दिनमें तो सर्प बनकर एक पिटारेमें रहता और रातमें एक दिव्य पुरुष होकर अपनी प्रियाके साथ सुखोपभोग करता। सचमुच संसारकी विचित्र ही स्थिति होती है। इसी तरह उसे कई दिन बोत गये । एक दिन नागदत्ताकी माता अपनी पुत्रीको एक ओर तो यौवन अवस्था में पदार्पण करती और दूसरी ओर उसके विपरीत भाग्यको देखकर दुखी होकर बोली-हाय ! देवकी कैसी विडम्बना है, जो कहाँ तो देवकुमारो सरीखो सुन्दरी मेरी पुत्री और कैसा उसका अभाग्य जो उसे पति मिला एक भयंकर सर्प! उसकी दुःख
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