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आराधना कथाकोश
कालसंदीव नामका विद्वान् पुत्र उज्जैन में आया। वह कई भाषाओंका जाननेवाला था। इसलिये धतिषणने चण्डप्रद्योतको पढ़ानेके लिये उसे रख लिया । कालसंदोवने चण्डप्रद्योतको कई भाषाओंका ज्ञान कराये बाद एक म्लेच्छ-अनार्यभाषाको पढ़ाना शुरू किया। इस भाषाका उच्चारण बड़ा ही कठिन था। राजकुमारको उसके पढ़ने में बहुत दिक्कत पड़ा करती थो । एक दिन कोई ऐसा ही पाठ आया, जिसका उच्चारण बहुत क्लिष्ट था। राजकुमारसे उसका ठीक ठीक उच्चारण न बन सका । कालसन्दीवने उसे शुद्ध उच्चारण करानेकी बहत कोशिश की, पर उसे सफलता प्राप्त , न हुई। इससे कालसन्दीवको कुछ गुस्सा आ गया। गुस्से में आकर उसने
राजकुमारको एक लात मार दी। चण्डप्रद्योत था तो राजकुमार ही सो उसका भी कुछ मिजाज बिगड़ गया। उसने अपने गुरु महाराजसे तब कहा-अच्छा महाराज, आपने जो मुझे मारा है, मैं भी इसका बदला लिये बिना न छोईंगा। मझे आप राजा होने दीजिये, फिर देखिएगा कि मैं भी आपके इसी पाँवको काटकर ही रहँगा। सच है, बालक कम-बुद्धि हुआ हो करते हैं। कालसन्दीव कुछ दिनोंतक और यहाँ रहा, फिर वह यहाँसे दक्षिणकी ओर चला गया। उधर कालसन्दीवको एक दिन किसी मुनिका उपदेश सुननेका मौका मिला। उपदेश सुनकर उसे बड़ा वैराग्य हुआ। वह मुनि हो गया। __ इधर धृतिषेण राजा भी चण्डप्रद्योतको सब राज-काज सौंपकर साधु बन गया । राज्यकी बागडोर चण्डप्रद्योतके हाथमें आई । इसमें कोई सन्देह नहीं कि चण्डप्रद्योतने भी राज्यशासन बड़ी नीतिके साथ चलाया । प्रजाके हितके लिये उसने कोई बात उठा न रखी।
एक दिन चण्डप्रद्योत पर एक यवनराजका पत्र आया। भाषा उसको अनार्य थी। उस पत्रको कोई राजकर्मचारी न बाँच सका। तब राजाने उसे देखा तो वह उससे बँच गया। पत्र पढ़कर राजाको अपने गुरु कालसन्दीव पर बड़ी भक्ति हो गई। उसने बचपनकी अपनी प्रतिज्ञाको उसी समय भुला दिया। इसके बाद राजाने कालसन्दीवका पता लगाकर उन्हें अपने शहर बुलाया और बड़ो भक्तिसे उनके चरणोंकी पूजा की। सच है, गुरुओंके वचन भव्यजनोंको उसी तरह सुख देनेवाले होते हैं जैसे रोगीको औषधि।
कालसन्दीव मुनि यहाँ श्वेतसन्दीव नामके किसी एक भव्यको दीक्षा देकर फिर विहार कर गये। मार्ग में पड़नेवाले शहरों और गाँवोंमें उपदेश
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