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आराधना कथाकोश उन्हें खुब सताते हैं, पर वे उससे अपनेको कुछ भी दुखी ज्ञान नहीं करते । वास्तवमें जैन साधुओंका मार्ग बड़ा कठिन है, उसे ऐसे ही धीर वीर महात्मा पाल सकते हैं। साधारण पुरुषोंकी उसके पास गम्य नहीं। चक्रवर्ती इस प्रकार आत्मकल्याणके मार्गमें आगे-आगे बढ़ने लगे।
एक दिनकी बात है कि वे आहारके लिये शहरमें गये । आहार करते समय कोई प्रकृति-विरुद्ध वस्तु उनके खानेमें आ गई। उसका फल यह हुआ कि उनका सारा शरीर खराब हो गया, उसमें अनेक भयंकर व्याधियाँ उत्पन्न हो गई और सबसे भारी व्याधि तो यह हई कि उनके सारे शरीरमें कोढ़ फूट निकली। उससे रुधिर, पीप बहने लगा, दुर्गन्ध आने लगी । यह सब कुछ हुआ पर इन व्याधियोंका असर चक्रवर्तीके मनपर कुछ भी नहीं हआ। उन्होंने कभी इस बातकी चिन्ता तक भी नहीं की कि मेरे शरीरकी क्या दशा है ? किन्तु वे जानते थे कि
बीभत्सु तापकं पूति शरीरमशुचेर्गृहम् ।
का प्रीतिर्विदुषामत्र यत्क्षणार्धे परिक्षयि ।। इसलिये वे शरीरसे सर्वथा निर्मोही रहे और बड़ी सावधानीसे तपश्चर्या करते रहे-अपने व्रत पालते रहे। । एक दिन सौधर्मस्वर्गका इन्द्र अपनी सभामें धर्म-प्रेमके वश हो मुनियों के पाँच प्रकारके चारित्रका वर्णन कर रहा था। उस समय एक मदनकेतु नामक देवने उससे पूछा-प्रभो ! जिस चारित्रका आपने अभी वर्णन किया उसका ठीक पालनेवाला क्या कोई इस समय भारतवर्ष में है ? उत्तरमें इन्द्र ने कहा, सनत्कुमार चक्रवर्ती हैं। वे छह खण्ड पृथ्वीको तृणकी तरह छोड़कर संसार, शरीर, भोग आदिसे अत्यन्त उदास हैं और दृढ़ताके साथ तपश्चर्या तथा पंचप्रकारका चारित्र पालन करते हैं। ___ मदनकेतु सुनते ही स्वर्गसे चलकर भारतवर्ष में जहाँ सनत्कुमार मुनि तपश्चर्या करते थे, वहाँ पहुँचा । उसने देखा कि उनका सारा शरीर रोगोंका घर बन रहा है, तब भी चक्रवर्ती सुमेरुके समान निश्चल होकर तप कर रहे हैं। उन्हें अपने दुःखकी कुछ परवा नहीं है। वे अपने पवित्र चारित्रका धीरताके साथ पालनकर पृथ्वीको पावन कर रहे हैं। उन्हें देखकर मदनकेतु बहुत प्रसन्न हुआ। तब भी वे शरीरसे कितने निर्मोही हैं, इस बातकी परीक्षा करनेके लिये उसने वैद्यका वेष बनाया और लगा वनमें घूमने । वह घूम-घूम कर यह चिल्लाता था कि "मैं एक बड़ा प्रसिद्ध वैद्य हूँ, सब वैद्योंका शिरोमणि हूँ। कैसी ही भयंकरसे भयंकर व्याधि
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