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________________ सनत्कुमार चक्रवर्तीको कथा से कुछ भी कमी नहीं दिखती, न जाने तुमने कैसे पहली सुन्दरतासे इसमें कमी बतलाई है । सुनकर देवोंने सबको उसका निश्चय करानेके लिये एक जल भरा हुआ घड़ा मँगवाया और उसे सबको बतलाकर फिर उसमेंसे तृण द्वारा एक जलकी बूंद निकाल ली। उसके बाद फिर घड़ा सबको दिखलाकर उन्होंने उनसे पूछा-बतलाओ पहले जैसे घड़ेमें जल भरा था अब भी वैसा हो भरा है, पर तुम्हें पहलेसे इसमें कुछ विशेषता दिखतो है क्या ? सबने एक मत होकर यही कहा कि नहीं। तव देवोंने राजासे कहा-महाराज, घड़ा पहले जैसा था, उसमेंसे एक बूंद जलकी निकाल ली गई तब भी वह इन्हें वैसा ही दिखता है। इसी तरह हमने आपका जो रूप पहले देखा था, वह अब नहीं रहा । वह कमो हमें दिखती है, पर इन्हें नहीं दिखती। यह कहकर दोनों देव स्वर्गकी ओर चले गये। चक्रवर्तीने इस चमत्कारको देखकर विचारा-स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु, धन, धान्य, दासी, दास, सोना, चाँदी आदि जितनी सम्पत्ति है, वह सब बिजलीकी तरह क्षणभरमें देखते-देखते नष्ट होनेवाली है और संसार दुःखका समुद्र है। यह शरीर भी, जिसे दिनरात प्यार किया जाता है, घिनौना है, सन्तापको बढ़ानेवाला है, दुर्गन्धयुक्त है और अपवित्र वस्तुओंसे भरा हुआ है । तब इस क्षणविनाशी शरोरके साथ कौन बुद्धिमान् प्रेम करेगा? ये पाँच इन्द्रियोंके विषय ठगोंसे भी बढ़कर ठग हैं। इनके द्वारा ठगाया हुआ प्राणी एक पिशाचिनीकी तरह उनके . वश होकर अपनी सब सुधि भूल जाता है और फिर जैसा वे नाच नचाते हैं नाचने लगता है। मिथ्यात्व जीवका शत्रु है, उसके वश हुए जीव अपने आत्महितके करनेवाले, संसारके दुःखोंसे छुटाकर अविनाशी सुखके देनेवाले, पवित्र जिनधर्मसे भी प्रेम नहीं करते । सच भी तो है-पित्तज्वरवाले पुरुषको दूध भी कड़वा हो लगता है। परन्तु मैं तो अब इन विषयोंके जालसे अपने आत्माको छुड़ाऊंगा । मैं आज हो मोहमायाका नाशकर अपने हितके लिये तैयार होता है । यह विचार कर वैरागी चक्रवर्तीने जिनमन्दिरमें पहुंचकर सब सिद्धिकी प्राप्ति करानेवाले भगवान्की पूजा की, याचकोंको दयाबुद्धिसे दान दिया और उसी समय पुत्रको राज्यभार देकर आप वनको ओर रवाना हो गये; और चारित्रगुप्त मुनिराजके पास पहुंचकर उनसे जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि संसारका हित करनेवाली है। इसके बाद वे पंचाचार आदि मुनिव्रतोंका निरतिचार पालन करते हुए कठिनसे कठिन तपश्चर्या करने लगे। उन्हें न शीत सताती है और न आताप सन्तापित करता है । न उन्हें भूखको परवा है और न प्यास की। वनके जोव-जन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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