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शालिसिक्थ मच्छके भावोंकी कथा ३१३ अर्थात् कर्त्तव्य पालन कर सर्वोच्च सुख लाभ करेंगे। जैसा कि उक्त मुनिराजोंने किया।
वे मुनिराज आप लोगोंको भी सुख दें, जिन्होंने ध्यानरूपी पर्वतका आश्रय ले बड़ा दुःसह उपसर्ग जीता, अपने कर्तव्यसे सर्वश्रेष्ठ कहलानेका सम्मान लाभ किया और अन्त में अपने उच्च भावोंसे मोक्ष सुख प्राप्त कर देवों, विद्याधरों, चक्रवत्तियों आदि द्वारा पूजाको प्राप्त हुए और संसारमें सबसे पवित्र गिने जाने लगे।
७५. शालिसिक्थ मच्छके भावोंकी कथा
केवलज्ञानरूपी नेत्रके धारक और स्वयंभू श्रीआदिनाथ भगवानको नमस्कार कर सत्पुरुषोंको इस बातका ज्ञान हो कि केवल मनको भावनासे ही मनमें विचार करनेसे ही कितना दोष या कर्मबन्ध होता है, इसकी एक कथा लिखी जाती है।
सबसे अन्तके स्वयंभूरमण समुद्र में एक बड़ा भारी दीर्घकाय मच्छ है । वह लम्बाईमें एक हजार योजन, चौड़ाई में पाँच सौ योजन और ऊंचाईमें ढाईसौ योजनका है। (एक योजन चार या दो हजार कोसका होता है) यहीं एक और शालिसिक्थ नामका मच्छ इस बड़े मच्छके कानोंके आसरहता है। पर यह बहत ही छोटा है और इस बड़े मच्छके कानोंका मैल खाया करता है। जब यह बड़ा मच्छ सेकड़ों छोटे-मोटे जल-जीवोंको खाकर और मुंह फाड़े छह मासकी गहरी नींदके खुर्राटे में मग्न हो जाता उस समय कोई एक-एक दो-दो याजनके लम्बे-चौड़े कछुए, मछलियां, घड़ियाल, मगर आदि जलजन्तु, बड़े निर्भीक होकर इसके विकराल डाढोंवाले मुंहमें घुसते और बाहर निकलते रहते हैं। तब यह छोटा सिक्थमच्छ रोज-रोज सोचा करता है कि यह बड़ा मच्छ कितना मूर्ख है जो अपने मुखमें आसानीसे आये हुए जीवोंको व्यर्थ हो जाने देता है ! यदि कहीं मुझे वह सामर्थ्य प्राप्त हुई होती तो मैं कभी एक भी जीवको न जाने देता । बड़े दुःखकी बात है कि पापी लोग अपने आप हो ऐसे बुरे
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