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आराधना कथाकोश धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे। और रिष्टामात्य नामका इनका मंत्री इनसे बिलकुल उल्टा-मिथ्यात्वी और जैनधर्मका बड़ा द्वेषी था। सो ठीक ही है, चन्दनके वृक्षोंके आस-पास सर्प रहा ही करते हैं।
एक दिन श्रीवृषभसेन मुनि अपने संघको साथ लिये कुण्डल नगरको ओर आये। वैश्रवण उनके आनेके समाचार सुन बड़ी विभूतिके साथ भव्यजनोंको संग लिये उनकी वन्दनाको गया। भक्तिसे उसने उनकी प्रदक्षिणा की, स्तुति की वन्दना की और पवित्र द्रव्योंसे पूजा की तथा उनसे
जैनधर्मका उपदेश सुना। उपदेश सुनकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। सच ' है, इस सर्वोच्च और सब सुखोंके देनेवाले जैनधर्मका उपदेश सुनकर कौन सद्गति-का पात्र सुखी न होगा ?
राजमंत्री भी मुनिसंघके पास आया। पर वह इसलिए नहीं कि वह उनकी पूजा-स्तुति करे; किन्तु उनसे वाद-शास्त्रार्थ कर उनका मानभंग करने, लोगोंकी श्रद्धा उन परसे उठा देने। पर यह उसकी भूल थी। कारण जो दूसरोंके लिए कुआ खोदते हैं उसमें पहले उन्हें ही गिरना पड़ता है। यही हुआ भी। मंत्रोने मुनियोंका अपमान करनेकी गर्जसे उनसे शास्त्रार्थ किया, पर अपमान उसीका हुआ। मुनियोंके साथ उसे हार जाना पड़ा। इस अपमानकी उसके हृदय पर गहरी चोट लगी। इसका बदला चुकाना निश्चित कर वह शामको छुपा हुआ मुनिसंघके पास आया और जिस स्थानमें वह ठहरा था उसमें उस पापीने आग लगा दी। बड़े दुःखकी बात है कि दुर्जनोंका स्वभाव एक विलक्षण ही तरहका होता है । वे स्वयं तो पहले दूसरोंके साथ छेड़-छाड़ करते हैं और जब उन्हें अपने कियेका फल मिलता है तब वे यह समझ कर, कि मेरा इसने बुरा किया, दूसरे निर्दोष सत्पुरुषों पर क्रोध करते हैं और फिर उनसे बदला लेनेके लिए उन्हें नाना प्रकारके कष्ट देते हैं। ___ जो हो, मंत्रीने अपनी दुष्टतामें कोई कसर न की। मुनिसंघ पर उसने बड़ा ही भयंकर उपसर्ग किया । पर उन तत्त्वज्ञानी-वस्तु स्थितिको जाननेवाले मुनियोंने इस कष्टको कुछ परवा न कर बड़ो सहन-शीलताके साथ सब कुछ सह लिया और अन्त में अपने-अपने भावोंकी पवित्रताके अनुसार उनमेंसे कितने ही मोक्षमें गये और कितने ही स्वर्गमें ।
दुष्ट पुरुष सत्पुरुषोंको कितना ही कष्ट क्यों न पहुंचावें उससे खराबी उन्हीं को है, उन्हें ही दुर्गतिमें दुःख भोगना पड़ेंगे। और सत्पुरुष तो ऐसे कष्टके समयमें भी अपनी प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ रहकर अपना धर्म
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