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आराधना कथाकोश
वापिस लौटा दो। धन देना पड़े तो वह भी दो । राजाज्ञा पा मंत्रीने उन्हें धन वगैरह देकर लौटा दिया। सच है, बिना मंत्रीके राज्य स्थिर हो ही नहीं सकता ।
एक दिन नन्दको स्वयं कुछ धनकी जरूरत पड़ी। उसने खजांची से खजाने में कितना धन मौजूद है, इसके लिए पूछा । खजांचीने कहा - महाराज, धन तो सब मंत्री महाशयने दुश्मनोंको दे डाला । खजाने में तो अब नाम मात्रके लिये थोड़ा-बहुत धन बचा होगा । यद्यपि दुश्मनों को धन स्वयं राजाने दिलवाया था और इसलिए गल्ती उसी की थी, पर उस समय अपनी यह भूल उसे न दीख पड़ी और दूसरे के उस्कानेमें आकर उसने बेचारे निर्दोष मंत्रीको और साथमें उसके सारे कुटुम्बको एक अन्धे कुए में डलवा दिया। मंत्री तथा उसका कुटुम्ब वहाँ बड़ा कष्ट पाने लगा । इनके खाने-पीने के लिए बहुत ही थोड़ा भोजन और थोड़ा-सा पानी दिया जाता था । यह इतना थोड़ा होता था कि एक मनुष्य भी उससे अच्छी तरह पेट न भर सकता था । सच है, राजा किसीका मित्र नहीं होता । राजाके इस अन्यायने कावीके मनमें प्रतिहिंसा की आग धधका दी । इस आगने बड़ा भयंकर रूप धारण किया । कावीने तब अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहा- जो भोजन इस समय हमें मिलता है उसे यदि हम इसी तरह थोड़ा-थोड़ा सब मिलकर खाया करेंगे तब तो हम धीरे-धीरे सब ही मर मिटेंगे और ऐसी दशा में कोई राजासे उसके इस अन्यायका बदला लेनेवाला न रहेगा । पर मुझे यह सह्य नहीं । इसलिये मैं चाहता हूँ कि मेरा कोई कुटुम्बका मनुष्य राजासे बदला ले । तब हो मुझे शान्ति मिलेगी । इसलिये इस भोजनको वही मनुष्य अपने मेंसे खाये जो बदला लेनेकी हिम्मत रखता हो । तब उसके कुटुम्बियोंने कहा - इसका बदला लेने में आप ही समर्थ देख पड़ते हैं । इसलिये हम खुशीके साथ कहते हैं कि इस भारको आप ही अपने सर पर लें। उस दिनसे उसका सारा कुटुम्ब भूखा रहने लगा और धीरे-धीरे सबका सब मर मिटा । इधर कावी अपने रहने योग्य एक छोटा-सा गढ़ा उस कुएमें बनाकर दिन काटने लगा । ऐसे रहते उसे कोई तीन वर्ष बीत गये ।
जब यह हाल आस-पासके राजोंके पास पहुँचा तब उन्होंने इस समय राज्यको अव्यवस्थित देख फिर चढ़ाई कर दी । अब तो नन्दके कुछ होश ढीले पड़े, अकल ठिकाने आई। अब उसे न सूझ पड़ा कि वह क्या करे ? तब उसे अपने मंत्री कावीकी याद आई। उसने नौकरोंको आज्ञा दे कुए से मंत्रीको निकलवाया और पीछा मंत्रीकी जगह नियत किया। मंत्रीने भी
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