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चिलात-पुत्रको कथा
३०३ उसने शुरू किया । यह एक साधारण बात है कि अन्यायी का कोई साथ नहीं देता और यही कारण हुआ कि मगधकी प्रजाकी श्रद्धा उस परसे बिलकुल ही उठ गई । सारी प्रजा उससे हृदयसे नफरत करने लगी। प्रजाका पालक होकर जो राजा उसी पर अन्याय करे तब इससे बढ़कर और दुःखकी बात क्या हो सकती है ?
परन्तु इसके साथ ही यह भी बात है कि प्रकृति अन्यायको नहीं सहती । अन्यायीको अपने अन्यायका फल तुरन्त मिलता है। चिलातपुत्रके अन्यायकी डुगडुगी चारों ओर पिट गई । श्रेणिकको जब यह बात सुन पड़ी तब उससे चिलातपूत्रका प्रजा पर जुल्म करना न सहा गया। वह उसी समय मगधको ओर रवाना हुआ। जैसे ही प्रजाको श्रेणिकके राजगृह आनेकी खबर लगी उसने उसका एकमत होकर साथ दिया। प्रजाकी इस सहायतासे श्रेणिकने चिलातको राज्यसे बाहर निकाल आप मगधका सम्राट बना । सच है, राजा होनेके योग्य वही पुरुष है जो प्रजाका पालन करनेवाला हो । जिसमें यह योग्यता नहीं वह राजा नहीं, किन्तु इस लोकमें तथा परलोकमें अपनी कीत्तिका नाश करनेवाला है।
चिलातपुत्र मगधसे भागकर एक वनीमें जाकर बसा । वहाँ उसने एक छोटा-मोटा किला बनवा लिया और आसपासके छोटे-छोटे गाँवोंसे जबरदस्ती कर वसूल कर आप उनका मालिक बन बैठा। इसका भर्तृमित्र नामका एक मित्र था। भर्तमित्रके मामा रुद्रदत्तके एक लड़की थी। सो भत मित्रने अपने मामासे प्रार्थना की-वह अपनी लड़कोका ब्याह चिलातपुके साथ कर दे। उसकी बात पर कुछ ध्यान न देकर रुद्रदत्त चिलातपुत्रको लड़की देनेसे साफ मुकर गया। चिलातपुत्रसे अपना यह अपमान न सहा गया । वह छुपा हुआ राजगृहमें पहुंचा और विवाहस्नान करती हुई सुभद्राको उठा चलता बना । जैसे ही यह बात श्रेणिकके कानों में पहुँची वह सेना लेकर उसके पोछे दौड़ा। चिलातपुत्रने जब देखा कि अब श्रेणिकके हाथसे बचना कठिन है, तब उस दुष्ट निर्दयीने बेचारी सुभद्राको तो जानसे मार डाला और आप जान लेकर भागा। वह वैभारपर्वत परसे जा रहा था कि उसे वहाँ एक मुनियोंका संघ देख पड़ा। चिलातपुत्र दौड़ा हुआ संघाचार्य श्री मुनिदत्त मुनिराजके पास पहुंचा और उन्हें हाथ जोड़ सिर नवा उसने प्रार्थना की कि प्रभो, मुझे तप दीजिए, जिससे मैं अपना हित कर सकूँ । आचार्यने तब उससे कहा-प्रिय, तूने बड़ा अच्छा सोचा जो तू तप लेना चाहता है । तेरी आयु अब सिर्फ आठ
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