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बत्तीस सेठ पुत्रोंकी कथा
२८१ भाग्यसे इन्हीं दिनोंमें खूब जोरको वर्षा हुई । नदी, नाले सब पूर आ गये। यमुना भी खूब चढ़ी। एक जोरका ऐसा प्रवाह आया कि ये सभी मुनि उसमें बह गये। अन्तम समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर स्वर्ग गये। सच है महापुरुषोंका चरित्र सुमेरुसे कहीं स्थिरशाली होता है। स्वर्गमें दिव्यसुखोंको भोगते हुए वे सब जिनेन्द्र भगवान्की भक्तिमें सदा लीन रहते हैं।
कर्मोको जीतनेवाले जिनेन्द्र भगवान् सदा जयलाभ करें। उनका पवित्र शासन संसारमें सदा रहकर जीवोंका हित साधन करे। उनका सर्वोच्च चारित्र अनेक प्रकारके दु:सह कष्टोंको सहकर भी मेरु सदृश स्थिर रहता है, उसकी तुलना किसीके साथ नहीं की जा सकती, वह संसारमें सर्वोत्तम आदर्श है, भव-भ्रमण मिटानेवाला है, परम सुखका स्थान है और मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि आत्मशत्रुओंका नाश करनेवाला है, उन्हें जड़ मूलसे उखाड़ फेंक देनेवाला है। हे भव्यजन ! आप भी इस उच्च आदर्शको प्राप्त करनेका प्रयत्न करिये, ताकि आप भी परमसुख-मोक्षके पात्र बन सकें। जिनेन्द्र भगवान् इसके लिए आप सबको शक्ति प्रदान करें, यही भावना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माणः केवलज्ञान भास्कराः। कुर्वन्तु जगतः शान्तिं, वृषभाद्या जिनेश्वराः ।।
इति आराधना कथाकोश द्वितीय भाग
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