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आराधना कथाकोश
इसलिए उन्होंने उज्जैनमें ही किसी एक बड़के झाड़क नोचे समाधि ले ली और भूख-प्यास आदिकी परीषह जीतकर अन्त में स्वर्गलाभ किया । वे जैनधर्मके सार तत्त्वको जाननेवाले महान् तपस्वी श्रीभद्रबाहु आचार्य हमें सुखमयी सन्मार्ग में लगावें ।
सोमशर्मा ब्राह्मणके वंशके एक चमकते हुए रत्न, जिनधर्मरूप समुद्रके बढ़ानेको पूर्ण चन्द्रमा और मुनियोंके, योगियोंके शिरोमणि श्रीभद्रबाहु पंचम श्रुतकेवली हमें वह लक्ष्मी दें जो सर्वोच्च सुखकी देनेवाली है, सब धन-दौलत, विभव - सम्पत्ति में श्रेष्ठ है ।
६२. बत्तीस सेठ पुत्रोंकी कथा
लोक और अलोकके प्रकाश करनेवाले — उन्हें देख जानकर उनके स्वरूपको समझानेवाले श्रीसर्वज्ञ भगवान्को नमस्कार कर बत्तीस सेठ पुत्रों की कथा लिखी जाती है ।
कौशाम्बी बत्तीस सेठ थे । उनके नाम थे इन्द्रदत्त, जिनदत्त, सागरदत्त आदि। इनके पुत्र भी बत्तीस ही थे । उनके नाम समुद्रदत्त, वसुमित्र, नागदत्त, जिनदास आदि थे । ये सब ही धर्मात्मा थे, जिनभगवान्के सच्चे भक्त थे, विद्वान् थे, गुणवान् थे और सम्यक्त्वरूपी रत्नसे भूषित थे । इन सबकी परस्पर में बड़ी मित्रता थी । यह एक इनके पुण्यका उदय कहना चाहिए जो सब ही धनवान्, सब ही गुणवान्, सब ही धर्मात्मा और सबकी परस्परमें गाढ़ी मित्रता । बिना पुण्यके ऐसा योग कभी मिल ही नहीं सकता ।
एक दिन ये सब ही मित्र मिलकर एक केवलज्ञानी योगिराज की पूजा करने गये । भक्ति इन्होंने भगवान् की पूजा की और फिर उनसे धर्मका पवित्र उपदेश सुना । भगवान् से पूछने पर इन्हें जान पड़ा कि इनकी उमर अब बहुत थोड़ी रह गई है तब इस अन्तसमय के आत्महित साधनेके योगको जाने देना उचित न समझ इन सब हीने संसारका भटकना मिटानेवाली जिनदीक्षा ले ली । दीक्षा लेकर तपस्या करते हुए ये यमुना यहीं इन्होंने प्रायोपगमन संन्यास ले लिया ।
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नदीके किनारे पर आये ।
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