________________
२६२
आराधना कथाकोश नागश्री लड़कीको जबरदस्ती छुड़ा लिया । वे कहते हैं कि यह तेरी लड़की नहीं, किन्तु हमारी लड़की है । राजाधिराज, सारा शहर जानता है कि नागश्री मेरी लड़की है। महाराज, उन पापियोंसे मेरी लड़की दिलवा दीजिए। सोमशर्माकी बातसे सारी राज-सभा बड़े विचारमें पड़ गई। राजाकी भी अकलमें कुछ न आया। तब वे सबको साथ लिए मुनिके पास आये और उन्हें नमस्कार कर बैठ गये। फिर यही झगड़ा उपस्थित हुआ। सोमशर्मा तो नागश्रीको अपनी लड़की बताने लगा और सूयमित्र मुनि अपनी। मुनि बोले-अच्छा, यदि यह तेरी लड़की है तो बतला तने इसे क्या पढ़ाया ? और सुन, मैंने इसे सब शास्त्र पढ़ाया है, इसलिए मैं अभिमानसे कहता है कि यह मेरी ही लड़की है । तब राजा बोले-अच्छा प्रभो, यह आप होकी लड़की सही, पर आपने इसे जो पढ़ाया है उसकी परीक्षा इसके द्वारा दिलवाइए। जिससे कि हमें विश्वास हो । तब सूर्यमित्र मुनि अपने वचनरूपी किरणों द्वारा लोगोंके चित्तमें ठसे हुए मूर्खतारूप गाढ़े अन्धकारको नाश करते हुए वोले-हे नागश्री, हे पूर्वजन्ममें वायभूतिका भव धारण करनेवाली, पुत्री, तुझे मैंने जो पूर्वजन्ममें कई शास्त्र पढ़ाये हैं, उनकी इस उपस्थित मंडलीके सामने तू परीक्षा दे । सूर्यमित्र मुनिका इतना कहना हुआ कि नागश्रीने जन्मान्तरका पढ़ा-पढ़ाया सब विषय सुना दिया। राजा तथा और सब मंडलीको इससे बड़ा अचम्भा हुआ। उन्होंने मुनिराजसे हाथ जोड़कर कहा-प्रभो, नागश्रीकी परीक्षासे उत्पन्न हआ विनोद हृदयभूमि में अठखेलियाँ कर रहा है। इसलिए कृपाकर आप अपने और नागश्रीके सम्बन्धको सब बातें खुलासा कहिए। तब अवधिज्ञानी सूर्यमित्र मुनिने वायुभूतिके भवसे लगाकर नागश्रीके जन्म तककी सब घटना उनसे कह सुनाई । सुनकर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्हें यह सब मोहकी लीला जान पड़ी । मोहको ही सब दुःखका मूल कारण समझ कर उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ। वे उसी समय और भी वहुतसे राजाओंके साथ जिनदीक्षा ग्रहण कर गये। सोमशर्मा भी जैनधर्मका उपदेश सुनकर मुनि हो गया और तपस्या कर अच्युत स्वर्गमें देव हुआ। इधर नागश्रीको भी अपना पूर्वका हाल सुनकर बड़ा वैराग्य हुआ। वह दोक्षा लेकर आर्यिका हो गई और अन्तमें शरीर छोड़कर तपस्याके फलसे अच्युत स्वर्गमें महद्धिक देव हुई । अहा ! संसारमें गुरु चिन्तामगिके समान हैं, सबसे श्रेष्ठ हैं। यही कारण है कि जिनकी कृपासे जीवोंको सब सम्पदाएँ प्राप्त हो सकती हैं।
यहाँसे विहार कर सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनिराज अग्निमन्दिर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org