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आराधना कथाकोश
की ओर जानेके लिए अपने मामासे सलाहकर समुद्रदत्त सेठके जहाज द्वारा पवनद्वीपमें पहुंचा। यहाँ इसके भाग्यका सितारा चमका। कुछ वर्ष यहाँ रहकर इसने बहुत धन कमाया। इसकी इच्छा अब देश लौट आनेकी हुई । अपनी माताके दर्शनोंके लिए इसका मन बड़ा अधीर हो उठा । इसने चलने की तैयारी कर जहाज में अपना सब धन असबाब लाद दिया ।
जहाज अनुकूल समय देख रवाना हुआ। जैसे-जैसे वह अपनो 'स्वर्गादपि गरीयसी' जन्मभूमिको ओर शीघ्र गति से बढ़ा हुआ जा रहा था, चारुदत्तको उतनी ही उतनी अधिक प्रसन्नता होती जाती थी । पर यह कोई नहीं जानता कि मनुष्यका चाहा कुछ नहीं होता । होता वही है जो दैवको मंजूर होता है । यही कारण हुआ कि चारुदत्तकी इच्छा पूरी न हो पाई और अचानक जहाज किसीसे टकराकर फट पड़ा। चारुदत्तका सब माल असबाब समुद्रके विशाल उदरकी भेंट चढ़ा । वह पीछा पहलेसा ही दरिद्र हो गया । पर चारुदत्तको दुःख उठाते - उठाते बड़ी सहन-शक्ति प्राप्त हो गई थी । एक पर एक आनेवाले दुःखोंने उसे निराशाके गहरे गढ़ेसे निकाल कर पूर्ण आशावादी और कर्त्तव्यशील बना दिया था । इसलिए अबकी बार उसे अपनी हानिका कुछ विशेष दुःख नहीं हुआ। वह फिर धन कमानेके लिए विदेश चल पड़ा । उसने अबकी बार भी बहुत धन कमाया । घर लौटते समय फिर भी उसकी पहलेसी दशा हुई। इतनेमें हो उसके बुरे कर्मोंका अन्त न हो गया; किन्तु ऐसी-ऐसी भयंकर घटनाओंका कोई सात बार उसे सामना करना पड़ा । इसने कष्ट पर कष्ट सहा, पर अपने कर्त्तव्य से यह कभी विमुख नहीं हुआ । अबकी बार जहाजके फट जानेसे यह समुद्र में गिर पड़ा। इसे अपने जीवनका भी सन्देह हो गया था । इतनेमें भाग्यसे बहकर आता हुआ एक लकड़ेका तख्ता इसके हाथ पड़ गया। उसे पाकर इसके जीमें जी आया। किसी तरह यह उसकी सहायता से समुद्र के किनारे आ लगा । यहाँसे चलकर यह राजगृहमें पहुँचा । यहाँ इसे एक विष्णुमित्र नामका संन्यासी मिला । संन्यासीने इसके द्वारा कोई अपना काम निकलता देखकर पहले बड़ी सज्जनताका इसके साथ बरताव किया । चारुदत्तने यह समझकर कि यह कोई भला आदमी है, अपनी सब हालत उससे कह दी । चारुदत्तको धनार्थी समझकर विष्णुमित्र उससे बोला- मैं समझा, तुम धन कमानेको घर बाहर हुए हो । अच्छा हुआ तुमने मुझसे अपना हाल सुना दिया । पर सिर्फ धनके लिए अब तुम्हें इतना कष्ट न उठाना पड़ेगा । आओ, मेरे साथ आओ, यहाँसे कुछ दूरपर जंगल में एक पर्वत है । उसकी तलहटीमें एक कुँआ
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