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वीरवतीकी कथा
१७१ देखनेके लिए खड़ी हो गई, पर उसे कुछ सफलता प्राप्त न हुई। सहस्रभट कुछ ओर पीछे हट गया। वह फिर आगे बढ़ी। पास ही सूलीका स्थान उसे देख पड़ा । वह पीछे आनेवालेकी बात भूलकर दौड़ो हुई अपने जारके पास पहुंची। उसे सूली पर चढ़ाये बहुत समय नहीं हुआ था, इसलिए उसकी अभी कुछ साँसेंबाकी थीं। वीरवतीको देखते हो उसने कहा-प्रिये, यही मेरो और तुम्हारी अन्तिम भेंट है । मैं तुम्हारी ही आशा लगाये अब तक जी रहा हूँ, नहीं तो कभीका मरमिटा होता। अब देर न कर मुझ दुखीको अन्तिम प्रेमालिंगन दे, सूखो करो और आओ, अपने मुखका पान मेरे मुखमें देओ; जिससे मेरा जीवन जिसके लिए अब तक टिका है उस तुमसी सुन्दरीका आलिंगन कर शान्तिसे परमधाम सिधारे। हाय ! इस कामको धिक्कार है, जो मृत्युके मुख में पड़ा हुआ भी उसे चाहता है ।
वीरवतीने अपने जारको सूलीपरसे उतारनेका कोई उपाय तत्काल न देखकर पासमें पड़े हुए कुछ मुर्दोको इकट्ठा किया और उन्हें ऊपर तले रखकर वह उनपर चढ़ी और अपना मुंह उसके मुंहके पास ले जाकर बोली-प्रियतम, लो अपनी इच्छा पूरी करो । गारकने वीरवतीके मुंहका पान लेनेके लिए उसके ओठोंको अपने मुंहमें लिया था कि कोई ऐसा धक्का लगा जिससे वीरवतीके पाँव नोचेका मुर्दोका ढेर खिसक जानेसे वीरवती नीचे आ गिरी और उसके ओठ कटकर गारकके ही मुंहमें रह गये। वीरवती वस्त्रसे अपना मुंह छिपाकर दौड़ी-दौड़ी घर पर आई और अपने पतिके सिरहाने पहँचकर उसने एकदम चिल्लाया कि दौड़ो! दौड़ो!! इस पापीने मेरा ओठ काट लिया और साथ ही बड़े जोरसे वह रोने लगी। उसी समय अड़ोस-पड़ोस और घरके लोगोंने आकर दत्तको बाँध लिया। सच है, पापिनी, कुलटा और अपने वंशका नाश करनेवाली स्त्रियाँ क्या नीच कर्म नहीं कर सकती ?
सबेरा हुआ। दत्त राजाके सामने उपस्थित किया गया। उसका क्या अपराध है और वह सच है या झूठ, इसकी कुछ विशेष तलाश न की जाकर एकदम उसके मारनेका हुक्म दिया गया। पर यह सबको ध्यानमें रखना चाहिए कि जब पुण्यका उदय होता है तब मृत्युके समय भी रक्षा हो जाती है। पाठकोंको विनोदी सहस्रभटकी याद होगी। वह वीरवतोके अन्तिम कुकर्म तक उसके आगे पीछे उपस्थित हो रहा है। उसने सच्ची घटना अपनी आँखोंसे देखो है। वह इस समय यहीं उपस्थित था। राजाका दत्तके लिए मारनेका हुक्म सुनकर उससे न रहा गया। उसने अपनी कुछ परवा न कर सब सच्ची घटना राजासे कह सुनाई।
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