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आराधना कथाकोश
राजगृहमें धनमित्र नामका एक सेठ रहता था। उसकी स्त्रीका नाम धारिणी और पुत्रका दत्त था। भूमिगृह नामक एक और नगर था। उसमें आनन्द नामका एक साधारण गृहस्थ रहता था। इसकी स्त्री मित्रवती थी। इसके एक वीरवती नामकी कन्या हुई। वीरवतीका व्याह दत्तके साथ हआ। सो ठीक ही है, जो सम्बन्ध देवको मंजूर होता है उसे कौन रोक सकता है।
यहीं एक चोर रहता था। इसका नाम था गारक । किसो समय वीरवतीने इसे देखा। वह इसकी सुन्दरतापर मुग्ध हो गई। एक बार ' दत्त रत्नद्वीपसे धन कमाकर घरकी ओर रवाना हुआ। रास्ते में इसकी सुसराल पड़ी। इसे अपनो प्रियतमासे मिले बहुत दिन हो गये थे, और यह उससे बहुत प्रेम भी करता था, इसलिए इसने सुसराल होकर घर जाना उचित समझा। यह रास्ते में एक जंगलमें ठहरा । यहीं एक सहस्रभट नामके चोरने इसे देखा । यहाँसे चलते समय दत्तके पीछे यह चोर भी. विनोदसे हो लिया और साथ-साथ भूमिगृहमें आ पहुंचा।
सुसगल में दत्तका बहुत कुछ आदर-सत्कार हुआ । वोरवती भी बड़े प्रेमके साथ इससे मिली। पर उसका चित्त स्वभाव-प्रसन्न न होकर कुछ बनावटको लिए था। उसका मन किसी गहरी चोटसे जर्जरित है, इस बातको चतुर पुरुष उसके चेहरेके रंगढंगसे बहुत जल्दी ताड़ सकता था। पर सरल-स्वभावी दत्त इसका रत्तीभर भी पता नहीं पा सका। कारण अपनी स्त्रीके सम्बन्धमें उसे स्वप्नमें भी किसी तरहका सन्देह न था । बात यह थी कि जिस चोरके साथ वीरवतीकी आशनाई थी, वह आज किसी बड़े भारी अपराधके कारण सूलीपर चढ़ाया जानेवाला था। वीरवतीको उसीका बड़ा रंज था और इसीसे उसका चित्त चल-विचल हो रहा था। रातके समय जब सब घरके लोग सो गये तब वीरवती अकेली उठी और हाथमें एक तलदार लिए वहीं पहुंची जहाँ अपराधी सूली पर चढ़ाये जाते थे। इसे घरसे निकलते समय सहस्रभट चोरने देख लिया। वह यह देखनेके लिए कि इतनी रातमें यह अकेला कहाँ जाती है, उसके पीछे-पीछे हो लिया। वीरवतोको उसके पाँवोंकी आवाजसे जान पड़ा कि उसके पीछे. पीछे कोई आ रहा है, पर रात अन्धेरी होनेसे वह उसे देख न सकी। तब उस दुष्टाने अपने हाथकी तलवारका एक वार पीछेको ओर किया। उससे बेचारे सहस्रभटकी अंगुलियाँ कट गई। तलवारको झटका लगनेसे उसे और दृढ़ विश्वास हो गया कि पीछे कोई अवश्य आ रहा है । वह
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