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देवरतिराजाको कथा
१६७ दूधका जला हुआ छाछको भी फंक-फूंककर पोता है। देवरतिको भी अब विपरीत गति है। अब वे स्त्रियोंको नहीं चाहते। वे सबको दान करते हैं, पर जो अपंग, लूला, लँगड़ा होता है, उसे वे एक अन्नका कण तक देना पाप समझते हैं। ___ इधर रक्तारानीने बहुत दिनों तक तो वहीं रहकर मजामौज मारी
और बाद वह उस अपंगको एक टोकरे में रखकर देश-विदेश घमने लगी। उस टोकरेको शिरपर रखे हुए वह जहाँ पहुँचती अपनेको महासती जाहिर करती और कहती कि माता-पिताने जिसके हाथ मुझे सौंपा वही मेरा प्राणनाथ है, देवता है। उसकी इस ठगाईसे बेचारे लोग ठगे जाकर उसे खुब रुपया पैसा देते। इसी तरह भिक्षा-वृत्ति करती करती रक्तारानी मंगलपुरमें आ निकली। वहाँ भी लोगोंकी उसके सतोत्व पर बड़ी श्रद्धा हो गई । हाँ सच है, जिन स्त्रियोंने ब्रह्मा, विष्णु, महादेव सरीखे देवताओंको भी ठग लिया, तब साधारण लोग उनके जालमें फँस जायें इसका आश्चर्य क्या ?
एक दिन ये दोनों गाते हुए राजमहलके सामने आये । इनके सुन्दर गानेको सुनकर ड्योढ़ीवानने राजासे प्रार्थना की-महाराज, सिंहद्वार पर एक सती अपने अपंग पतिको टोकरेमें रखकर और उसे सिरपर उठाये खड़ो है । वे दोनों बड़ा ही सुन्दर गाना जानते हैं। महाराजका वे दर्शन करना चाहते हैं। आज्ञा हो तो मैं उन्हें भीतर आने दूं। इसके साथ ही सभामें बैठे हुए और-और प्रतिष्ठित कर्मचारियोंने भी उनके देखनेकी इच्छा जाहिर की। राजाने एक पड़दा डलवा कर उन्हें बुलवानेकी आज्ञा की।
सती सिरपर टोकरा लिए भीतर आई। उसने कुछ गाया। उसके गानेको सुनकर सब मुग्ध हो गये और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। राजाने उसकी आवाज सुनकर उसे पहिचान लिया। उसने पड़दा हटवाकर कहा-अहा, सचमुच में यह महासतो है ! इसका सतीत्व मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। इसके बाद ही उन्होंने अपनी सारो कथा सभामें प्रगट कर दो । लोग सुनकर दाँतोंतले अंगुली दबा गये। उसी समय महासती रक्ताको शहर बाहर करनेकाहुक्म हुआ। देवरतिको त्रियोंका चरित देखकर बड़ा वैराग्य हुआ। उन्होंने अपने पहले पुत्र जयसेनको अयोध्यासे बुलवाया और उसे ही इस राज्यका भी मालिक बनाकर आप श्रीयमधराचार्यके पास जिनदीक्षा ले गये, जो कि अनेक सुखोंकी देनेवालो
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