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देवरतिराजाकी कथा के पालनेका सदा यत्न करते हैं, वे पद-पद पर आदर-सत्कारके पात्र होते हैं । इसलिए उत्तम पुरुषोंको सदा परस्त्री-त्यागवत ग्रहण किये रहना चाहिये।
भगवान्के उपदेश किये हुए, देवों द्वारा प्रशंसित और स्वर्गमोक्षका सुख देनेवाले पवित्र शोलवतका जो मन, वचन, कायकी पवित्रताके साथ पालन करते हैं, वे स्वर्गोका सुख भोगकर अन्तमें मोक्षके अनुपम सुखको प्राप्त करते हैं।
३०. देवरतिराजाकी कथा केवलज्ञान जिनका नेत्र है, उन जग पवित्र जिनभगवानको नमस्कार कर देवरति नामक राजाका उपाख्यान लिखा जाता है, जो अयोध्याके स्वामी थे।
अयोध्या नगरीके राजा देवरति थे। उनकी रानीका नाम रक्ता था। वह बहुत सुन्दरी थी। राजा सदा उसीके नादमें लगे रहते थे। वे बड़े विषयी थे। शत्रु बाहरसे आकर राज्यपर आक्रमण करते, उसको भी उन्हें कुछ परवा नहीं थी। राज्यको क्या दशा है, इसकी उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। जो धर्म और अर्थ पुरुषार्थको छोड़कर अनीतिसे केवल कामका सेवन करते हैं, सदा विषयवासनाके ही पास बने रहते हैं, वे नियमसे कष्टोंको उठाते हैं । देवरतिको भी यही दशा हुई । राज्यकी ओर. से उनकी यह उदासीनता मंत्रियोंको बहुत बुरो लगी । उन्होंने राजकाजके सम्हालनेको राजासे प्रार्थना की, पर उसका फल कुछ नहीं हुआ। यह देख मंत्रियोंने विचारकर देवरतिके पुत्र जयसेनको तो अपना राजा नियुक्त किया और देवरतिको उनको रानीके साथ देश बाहर कर दिया। ऐसे कामको धिक्कार है, जिससे मान-मर्यादा धूलमें मिल जाय और अपनेको कष्ट सहना पड़े।
देवरति अयोध्यासे निकल कर एक भयानक वनीमें आये। रानीको भूखने सताया, पास खानेको एक अन्नका कण तक नहीं । अब वे क्या
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