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मृगसेन धोवरकी कथा
१३३ रहे हैं और वह उनके बीचमें बड़े सुखसे खेल रहा है।" उनकी बातें सुनकर ही इन्द्रदत्त बालकके पास आया। वह एक दूसरे बाल सूर्यको देखकर बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसके कोई सन्तान तो थी ही नहीं, इसलिए बच्चे को उठाकर वह अपने घर ले आया और अपनी प्रियासे बोलाप्यारी राधा ? तुम्हें इसकी खबर भी नहीं कि तुम्हारे गढ़गर्भसे अपने कुलका प्रकाशक पुत्र हुआ है ? और देखो वह यह है। इसे ले लो और पा लो । आज अपना जीवन कृतार्थ हुआ। यह कहकर उसने बालकको अपनी प्रियाकी गोदमें रख दिया । बालकको खुशीके उपलक्षमें इन्द्रदत्तने खब उत्सव किया। खब दान दिया। सच हैप्राणिनां पूर्वपुण्पानामापदा सम्पदायते।।
-ब्रह्म नेमिदत्त ___अर्थात्-पुण्यवानोंके लिये विपत्ति भी सम्पत्तिके रूपमें परिणत हो जाती है। पापी श्रीदत्तको यह हाल मालूम हो गया। सो वह इन्द्रदत्तके घर आया और मायाचारसे उसने अपने बहनोई से कहा-देखोजी, हमारा भानजा बड़ा तेजस्वी है, बड़ा भाग्यवान् है, इसलिए उसे हम अपने घरपर ही रक्खेंगे। आप हमारी बहिन को भेज दीजिये। बेचारा इन्द्रदत्त उसके पापी हृदयकी बात नहीं जान पाया। इसलिए उसने अपने सीधे स्वभाव से अपनी प्रियाको पुत्र सहित उसके साथ कर दिया। बहुत ठीक लिखा है
अहो दुष्टाशयः प्राणी चित्तेऽन्यद्वचनेऽन्यथा। कायेनान्यत्करोत्येव परेषां वचन महत् ।।
-ब्रह्म नेमिदत्त
अर्थात्-जिन लोगोंका हृदय दुष्ट होता है, उनके चित्त में कुछ और रहता है, वचनोंसे वे कुछ और ही कहते और शरीरसे कुछ और ही करते हैं। दूसरोंको ठगना, उन्हें धोखा देना ही एक मात्र ऐसे पुरुषोंका उद्देश्य रहता है । पापी श्रीदत्त भी एक ऐसा ही दुष्ट मनुष्य था । इसीलिए तो वह निरपराध बालकके खून का प्यासा हो उठा। उसने पहले की तरह फिर भी उसे मार डालने की इच्छा से एक चाण्डाल को बहुत कुछ लोभ देकर उसके हाथ सौंप दिया। चाण्डालने भी बालकको ले तो लिया पर जब उसने उसकी स्वर्गीय सुन्दरता देखी तो उसके हृदय में भी दया देवी आ विराजी। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि कुछ हो, मैं कभी इस बच्चेको न मारूँगा और इसे बचाऊँगा । वह अपना विचार श्रीदत्तसे
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