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आराधना कथाकोश
वह बाहर कहीं न जाकर बगुलेकी तरह सोधा साधा बनकर घर हीमें रहने लगा । सच है -
कारणेन विना वैरी दुर्जनः सुजनो भवेत् ।
- ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात् - दुर्जन- शत्रु बिना कारणके भी सुजन - मित्र बन जाया करते हैं । सो पहले तो श्रीदत्त बेचारी धनश्रीको कष्ट दिया करता था और अब उसके साथ बड़ी सज्जनता का बर्ताव करने लगा । धनश्री सेठानीने समय पाकर पुत्रको प्रसव किया । वास्तवमें बालक बड़ा भाग्यशालो हुआ । वह उत्पन्न होते ही ऐसा तेजस्वी जान पड़ता था, मानो पुण्यसमूह हो । धनश्री पुत्रकी प्रसव वेदनासे मूर्छित हो गई । उसे अचेत देखकर पापी श्रीदत्तने अपने मनमें सोचा - बालक प्रज्वलित अग्निकी तरह तेजस्वी है, अपनेको आश्रय देनेवालेका ही क्षय करनेवाला होगा, इसलिये इसका जीता रहना ठीक नहीं । यह विचार कर उसने अपने घरको बड़ी बूढ़ी स्त्रियों द्वारा यह प्रगट करवा कर, कि बालक मरा हुआ पैदा हुआ था, बालकको एक भंगीके हाथ सौंप दिया और उससे कह दिया कि इसे ले जाकर ही मार डालना । उचित तो यह था कि
शत्रुजोपि न हन्तव्यो बालक कि पुनर्वृथा । हा कष्टं किं न कुर्वन्ति दुर्जनाः फणिनो यथा ॥ ब्रह्म नेमिदत्त
अर्थात् - शत्रुका भी यदि बच्चा हो, तो उसे नहीं मारना चाहिये, तब दूसरोंके बच्चोंके सम्बन्धमें तो क्या कहें ? परन्तु खेद है कि सर्पके समान दुष्ट पुरुष कोई भी बुरा काम करते नहीं हिचकते । चाण्डाल बच्चे को एकान्त में मारनेको ले गया, पर जब उसने उजेले में उसे देखा तो उसकी सुन्दरताको देखकर उसे भी दया आ गई, करुणासे उसका हृदय भर आया । सो वह उसे न मारकर वहीं एक अच्छे स्थानपर रखकर अपने घर
चला गया ।
श्रीदत्तकी एक बहिन थी । उसका ब्याह इन्द्रदत्त सेठके साथ हुआ था । भाग्य से उसके सन्तान नहीं हुई थी । बालकके पूर्व पुण्यके उदयसे इन्द्रदत्त माल बेचता हुआ इसी ओर आ निकला । जब वह गुवाल लोगोंके मोहल्ले में आया तो उसने गुवालोंको परस्पर बातें करते हुए सुना कि "एक बहुत सुन्दर बालकको न जाने कोई अमुक स्थानकी सिलापर लेटा गया है, वह बहुत तेजस्वी है, उसके चारों ओर अपनी गायोंके बच्चे खेल
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