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पंचनमस्कार मंत्र - माहात्म्य कथा
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बात मालूम थी । उसने सुदर्शनको राजमहलमें लिवा लेजानेको एक षड्यंत्र रचा । एक दिन वह एक कुम्हार के पास गई और उससे मनुष्यके आकारका एक मिट्टीका पुतला बनवाया और उसे वस्त्र पहराकर वह राजमहल 'लिवा ले चलो । महल में प्रवेश करते समय पहरेदारोंने उसे रोका और पूछा कि यह क्या है ? वह उसका कुछ उत्तर न देकर आगे बढ़ी। पहरेदारोंने उसे नहीं जाने दिया । उसने गुस्सेका ढौंग बनाकर पुतलेको जमीनपर दे मारा ! वह चूर-चूर हो गया । इसके साथ ही उसने कड़ककर कहा - पापियो, दुष्टो, तुमने आज बड़ा अनर्थ किया है। तुम नहीं जानते कि महारानीके नव्रत था, सो वे इस पुतलेकी पूजा करके भोजन करतीं । सो तुमने इसे फोड़ डाला है । अब वे कभी भोजन नहीं करेंगी । देखो, मैं अब महारानीसे जाकर तुम्हारी दुष्टताका हाल कहती हूँ। फिर वे सबेरे ही तुम्हारी क्या गति करती हैं ? तुम्हारी दुष्टता सुनकर ही वे तुम्हें जानसे मरवा डालेंगी । धायकी धूर्तता से बेचारे पहरेदारोंके प्राण सूख गये । उन्हें काटो तो खून नहीं । मारे डरके वे थर-थर काँपने लगे । वे उसके पाँवों में पड़कर अपने प्राण बचानेकी उससे भीख माँगने लगे । बड़ी आरजू मिन्नत करनेपर उसने उनसे कहा- तुम्हारी यह दशा देखकर मुझे दया आती है । खैर, मैं तुम्हारे बचानेका उपाय करूँगी । पर याद रखना अब तुम मुझे कोई काम करते समय मत छेड़ना । तुमने इस पुतलेको तो फोड़ डाला, - बतलाओ अब महारानी आज अपना व्रत कैसे पूरा करेंगी ? और न इसी - समय और दूसरा पुतला ही बन सकता है । अस्तु । फिर भी मैं कुछ उपाय करती हूँ । जहाँतक बन पड़ा वहाँ तक तो दूसरा पुतला ही बनवा- कर लाती हूँ और यदि नहीं बन सका तो किसी जिन्दा हो पुरुषको मुझें थोड़ी देर के लिये लाना पड़ेगा । तुम्हें सचेत करती हूँ कि उस समय मैं किसीसे नहीं बोलूंगी, इसलिये तुम मुझसे कुछ कहना सुनना नहीं । बेचारे पहरेदारोंको तो अपनी जानकी पड़ी हुई थी, इसलिए उन्होंने हाथ जोड़कर कह दिया कि - अच्छा, हम लोग आपसे अब कुछ नहीं कहेंगे । आप अपना काम निडर होकर कीजिये ।
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इस प्रकार वह धूर्त्ता सब पहरेदारोंको अपने वश कर उसी समय श्मशान में पहुँची । श्मशान जलती चिताओंसे बड़ा भयंकर बन रहा था उसी भयंकर श्मशान में सुदर्शन कायोत्सर्ग ध्यान कर रहा था। महारानी अभयाकी परिचारिकाने उसे उठा लाकर महारानीके सुपुर्द कर दिया । अभया अपनी परिचारिकापर बहुत प्रसन्न हुई । सुदर्शनको प्राप्त कर उसके आनन्दका कुछ ठिकाना न रहा, मानो उसे अपनी मनमानी निधि मिल
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