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आराधना कथाकोश
राजमहिषीने उसे अपने अनुकूल देखकर कहा - हाँ तो तुझसे मुझे एक बात कहना है ।
वह बोली- वह क्या, महारानीजी ?
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महारानी बोली- पर तु उसे कर दे तो मैं कहूँ ।
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वह बोली – देवी, भला, मैं तो आपकी दासी हूँ, फिर मुझे आपको आज्ञा पालन करनेमें क्यों इन्कार होगा । आप निःसंकोच होकर कहिये । जहाँतक मेरा बस चलेगा, मैं उसे पूरा करूंगी ।
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महारानी ने कहा – देख मेरा तेरेपर पूर्ण विश्वास है, इसलिए मैं अपने मन की बात तुझे कहती हूँ। देखना कहीं मुझे धोखा न देना ? तो सुन, मैं जिस सुदर्शनकी बाबत ऊपर तुझसे कह आई हूँ, वह मेरे हृदय में स्थान पा गया है । उसके बिना मुझे संसार निःसार और सूना जान पड़ता है । तू यदि किसी प्रयत्नसे मुझे उससे मिला दे तब ही मेरा जोवन बच सकता है । अन्यथा समझ संसार में मेरा जीवन कुछ ही दिनों के लिये है ।
वह महारानीकी बात सुनकर पहले तो कुछ विस्मित सी हुई, पर थो तो आखिर पैसे की गुलाम हो न ? उसने महारानीको आशा पूरी कर देने के बदले में अपनेको आशातीत धनकी प्राप्ति होगी, इस विचारसे कहामहारानीजी, बस यही बात है ? इसीके लिये आप इतनी निराश हुई जाती हैं ? जबतक मेरे दममें दम है तबतक आपको निराश होनेका कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता । मैं आपकी आशा अवश्य पूरी करूँगी । आप घबरावें नहीं । बहुत ठोक लिखा है
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असभ्य दुष्टनारोभिर्निन्दितं क्रियते न किम् ।
-ब्रह्म नेमिदत्त
अर्थात् - असभ्य और दुष्ट स्त्रियाँ कोन बुरा काम नहीं करतीं ? अभयाकी धाय भी ऐसी ही स्त्रियोंमेंसे थी । फिर वह क्यों इस काम में अपना हाथ न डालती ? वह अब सुदर्शनको राजमहल मे ले आनेके प्रयत्नमें लगी ।
सुदर्शन एक धर्मात्मा श्रावक था । वह वैरागी था । संसार में रहता तब भी सदा उससे छुटकारा पानेके उपायमें लगा रहता था । इसलिए वह ध्यानका भी अभ्यास किया करता था । अष्टमी और चतुदर्शीको रात्रि में वह भयंकर श्मशान में जाकर ध्यान करता । धायको सुदर्शनके ध्यानको
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